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प्राकृतपैंगलम्
(आ) प्रतिवेष्टितीकरणः-पढम (१.१ < प्रथम), पडु (१.६ < पतितः), ढिल्ली (१.१४७ < दिल्ली)
(इ) निष्कारण अनुनासिकता :-वंक (१.२ < वक्र), अंसू (१.६९ < अश्रु) दंसण (१.४ < दर्शन), जंप (२.१६८ तथा अनेकशः < जल्प). (ई) महाप्राणीकरण-खंधआ (१.७३ < स्कंधक).
वर्णविपर्यय-दीहरा (१.१९३ < दीर्घ), प्राणताविपर्यय-घरिणि (१.१७१ < गृहिणी).
अक्षरलोप-णिम्म (१.१८९ < णिअम) (छन्दोनिर्वाहार्थ), हत्ति (२.१४७-हअ त्ति < हत इति). (ए) अक्षरागम-तिअभंगी (२.२१४ < त्रिभंगी). (छन्दोनिर्वाहार्थ), (ऐ) सम्प्रसारण-तुरिअ (१.८ < त्वरित).
७०. यद्यपि प्रा० पैं० की भाषा ने म० भा० आ की अधिकांश ध्वन्यात्मक विशेषताओं को सुरक्षित रक्खा है, तथापि न० भा० आ० की विविध ध्वन्यात्मक विशेषताओं के बीज यहाँ पाये जाते हैं। उद्वृत्त स्वरों की संधि, व्यंजनद्वित्व का सरलीकरण तथा पूर्ववर्ती स्वर का दीर्धीकरण कुछ खास विशेषतायें हैं । प्रा० पैं० के तद्भव शब्दों में प्रायः यही प्रक्रिया पाई जाती है तथा अपभ्रंश की तरह य-श्रुति का प्रयोग नहीं मिलता । किंतु इसकी भाषा में अनेक तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्द ऐसे भी चल पड़े हैं, जहाँ स्वरमध्यग अल्पप्राण स्पर्शों को सुरक्षित रक्खा गया है। कतिपय उदाहरण ये हैं :
णदिहिँ (१.९=णइहिँ), णाअक (१.६३=णाअअ < नायक), मंडूक (१.८० मंडूअ), दुरित्त (१.१०४ दुरिअ < दुरित), पिक (१.१३५, २.१७९=पिअ) समाज (१.१६९), सेवक (१.१६९), दीपक्क (१.१८१-दीवअ < दीपक), डाकिणी (१.२०९=डाइणि < डाकिनी), कालिक्का (२.४२ कालिआ-कालिअ < कालिका), पाप (२.१४८=पाअ-पाव), भूत (२.१८३), वेताल (२.१८३) ।
किसी भी भाषा की अपनी एक निश्चित ध्वन्यात्मक संघटना (phonological structure) होती है। मोटे तौर पर वैयाकरणों ने प्राकृत तथा अपभ्रंश की ध्वन्यात्मक संघटना में कोई खास भेद नहीं माना है, किन्तु कथ्य भाषाओं में यह भेद स्पष्ट रहा होगा । इसी तरह न० भा० आ० की ध्वन्यात्मक संघटना अपभ्रंश की संघटना से भिन्न है । प्रा० पैं० की भाषा एक निश्चित ध्वन्यात्मक संघटना का परिचय न देकर अनेक तत्त्वों का परिचय देती है। यहाँ प्राकृत, अपभ्रंश तथा न० भा० आ० के विविध ध्वन्यात्मक तत्त्व एक साथ दिखाई पड़ते हैं, जो इसकी कृत्रिम साहित्यिक शैली के लक्षण हैं। इतना होने पर भी न० भा० आ० की ध्वन्यात्मक संघटना के सभी खास खास लक्षण यहाँ दृग्गोचर होते हैं ।
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