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ध्वनि-विचार
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ण्ह <ष्ण काण्ह (१.९ < कृष्ण).
चिण्ह (१.१८ < चिह्न).
उम्मंता (२.६७ < उन्मत्ता). कुम्भ (१.२०१ < कूर्म).
अम्मह (२.१३६ < अस्माकं). स्म (ष्म) अम्हाणं (२.१२ < अस्माकं), तुम्हाणं (२.१२ <*तुष्माकं), गिम्ह (१.१२३ < ग्रीष्म). < व्य कव्व (१.३६ < काव्य). <र्व गव्व (२.१९९ < गर्व).
उव्वासइ (१.१४४ < उद्वासयति). ल्ह < ल्ल उल्हसंत (१.७ < उल्लसंत्). ल्ल < ल्य सल्ल (२.२०० < शल्य).
< स्य जस्स (२.५३ < यस्य) कस्स (१.५५ < कस्य), तसु (२.५३ < तस्सु < तस्य). < स्व सरस्सई (२.३२ < सरस्वती).
< श्र *विस्साम (>विसाम १.१८९ < विश्राम). अन्य विकास :र <र्य तूर (१.१९ < तूर्य).' म्भ < ह्म बंभ (१.१५, १.१०८, १.११४ ब्रह्मा).२
(आ) संयुक्त व्यञ्जनों के बीच स्वरभक्ति की प्रक्रिया-प्राकृत अपभ्रंश में ही दुरुच्चारित संयुक्त व्यञ्जनों के बीच स्वरभक्ति पाई जाने लगी है। प्रा० पैं० में भी इस प्रक्रिया के कतिपय उदाहरण मिलते हैं :
पुहवी (१.३४ < पृथ्वी), वरिसइ (१.७२ < वर्षति), परसमणि (१.७९ < स्पर्शमणि), सलहिज्जइ (१.१४६ श्लाघ्यते), गरास (२.१३४ < ग्रास), सिविअण (२.१०३ <स्वप्न), परसण्णा (२.४८ < प्रसन्न) । व्यञ्जन द्वित्व का सरलीकरण
६८. जैसा कि हम बता चुके हैं (दे०६ ३५), न० भा० आ० की खास विशेषता व्यंजन द्वित्व का सरलीकरण है । यह दो तरह से पाया जाता है :
(१) पूर्ववर्ती स्वर का दीर्धीकरण-सहित, (२) पूर्ववर्ती स्वर का दीर्घकरण-रहित । इस विषय में विस्तार से विवेचन किया जा चुका है। प्रथम प्रक्रिया में अक्षर-भार (syllabic weight) की रक्षा के लिये पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ बना देते हैं। प्रा० पैं० से इसके उदाहरण ये हैं :
___ जासु (१.८२), तासु (१.८२), भणीजे (१.१००), कहीजे (१.१००), पभणीजे (१.१०४), धरीजे (१.१०४), दीसा (१.१२४ <*दिस्सइ), लाख (१.१५७), तीणि (१.१२५), आछे (२.१४४), ठवीजे (२.२०२), णीसंक (१.७२ < णिस्संक)।
द्वितीय प्रक्रिया में व्यञ्जन-द्वित्व का तो सरलीकरण तो कर दिया जाता है, किंतु पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ नहीं बनाया जाता । प्रा० पैं० के ये उदाहरण हैं :
वखाणिओ (२.१९६), जुझंता (२.१२३), णचंता (२.१८३ < णच्चंता), सव (२.२१४ < सव्वु), लख (१.१५७ लक्ख), विजुरि (१.१६६ < विज्जुरि).
६९. प्रा० पैं० की भाषा की अन्य संध्यात्मक विशेषतायें (Prosodic features) :__ (अ) सघोषीभावः-पढम (१.१ <प्रथम), मअगलु (१.७५ < मदकल), गिंदू (१.१५७ < कंदुकं (*गेदुकं). १. तूर्यधैर्यसौंदर्याश्चर्यपर्यन्तेषु रः । (प्राकृतप्रकाश ३.१८) २. म्हो म्भो वा । (हेम० ४.८.४१२)
३. दे० अनुशीलन पृ० १००
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