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________________ ध्वनि- विचार ४४३ इसी प्रक्रिया से संबद्ध वह प्रक्रिया है, जहाँ त (ट) डल तथा डल वाले रूप भी मिलते हैं । म० भा० आ० में स्वरमध्यग 'ड' का उत्क्षिप्त प्रतिवेष्टित 'ड़' हो गया था। वैभाषिकरूप में इसके 'र' तथा 'ल' विकास पाये जाते हैं । प्रा० पैं० में कुछ स्थानों पर यह 'ल' रूप मिलता है :- 'पअल (१.८६ < प्रकट) । पलिअ (१.१३५ < पडिअ पतितः), णिअलं (१.१६६ निकट) । स्पर्शेतर व्यञ्जन ध्वनियों में दन्त्य 'न' तथा सोष्म स, श ष' ध्वनियों का विकास आता है। शौर० महा० प्राकृत में पदमध्यगत 'न' का प्रतिवेष्टितीकरण हो गया था। वैयाकरणों ने पदादि 'न' का भी णत्व-विधान माना है, किंतु संभवतः कथ्य म० भा० आ० में पदादि 'न' (दन्त्य या वत्स्य) सुरक्षित था। जैन महाराष्ट्री के हस्तलेखों में यह सुरक्षित है। परि० प्राकृत तथा अपभ्रंश के हस्तलेखों में पदादि तथा स्वरमध्यग दोनों स्थिति में 'णत्व - विधान' पाया जाता हैं। प्राकृत पैं० में इसका विकास यों पाया जाता है : न° > ण° णाम (१.१०१ < नाम), णहपह (१.१०६ < नभः पथ), णिअम (१.१३९ - नियम), णाअराआ (१.१५६ < नागराज ) । ''ण' अणंग (१.१०४८ अनंग), दाणव (१.१५५ ८ दानव), गण (१.१६६ - गगन), णअण (१.६९८ नयन)। प्रा० पै० की भाषा में केवल दन्त्य 'स' ध्वनि ही मिलती है, तालव्य 'श' तथा मूर्धन्य 'ष' नहीं मिलते। इन दोनों का विकास 'स' ( पदादि तथा पदमध्य दोनों में) पाया जाता है। 'ष' का विकास कुछ स्थलों पर (संख्या शब्दों में) 'छ' भी होता है। साव (२.८७ - शाव), सअण (२.२१३ < शयन), संता (२.४८ < श्रान्त) | °°°स° अंसू (१.६९ < अश्रु), सरिस (१.११७ - सदृश), अस (१.२५ - अश्व), असणि (१.२४ < अशनि), देसा (१.२८ ८ देश:) वंसा (२.२१५८ वंश) कासीस (१.७७८ काशीश ) । सट्टि (१.१३१ - पष्टि), श° > स° ष<°स° ष < "छ ष° < ख ष <°स° म० भा० आ० में कहीं भी पदादि य ध्वनि नहीं पाई जाती न० भा० आ० के तद्भव शब्दों में भी यही प्रक्रिया पाई जाती है। डा० चाटुर्ज्या ने बताया है कि म० भा० आ० में आकर प्रा० भा० आ० की 'य' ध्वनि सोष्म 'ज़' हो गई थी। यह प्रक्रिया शहबाजगढी के अशोक लेख (तीसरी शती ई० पू०) में स्पष्ट हैं । यही 'ज़' म० भा० आ० में 'ज' के रूप में सुरक्षित है, किंतु पदमध्य में अन्य स्पर्श व्यञ्जनों की तरह लुप्त हो गया है । प्रा० पैं० में पदादि 'य' नियत रूप से 'ज' मिलता है : य > ज° छअ (२.४३ < षट्). खडा (२.५२ - षट्). दोस (१.११६ - दोष), विसं (२.१२० - विषं), असेस (१.५ < अशेष). जसु (१.१५७८ यशः), जमअ (१.९५ ८ यमक), जमल (१.१८० ८ यमल), जइ (१.१९४८ यदि, जहिच्छं (१.६९ < यथेच्च ), जाइहि (२.१४४ < यास्यति ) । स्वरमध्यग 'म' का 'वँ' विकास अपभ्रंश की खास विशेषता है, तथा यह राज०, ब्रज० आदि न० भा० आ० में भी पाया जाता है। प्रा० पै० में यह विशेषता नियमतः नहीं परिलक्षित होती। प्रायः ऐसे स्थानों पर 'म' ही पाया जाता है, किंतु दो स्थानों पर कुछ हस्तलेख अननुनासिक 'व-ब' लिखते हैं मैंने अपने संपादित संस्करण में केवल इन्हीं दो स्थलों पर 'व' पाठ लिया है तथा इसे हस्तलेखों की प्रवृत्ति का संकेत करने के लिए ही 'व' नहीं बनाया है। 1 > 'व' (०) भाविणिअं (१.२०८ भामिनि), सावर (२.१३६ श्यामल) Jain Education International 2. Chatterjea: O. D. B. L. vol. I § 133, p. 249 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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