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प्राकृतपैंगलम् असंयुक्त व्यंजन-संबंधी अन्य छुटपुट परिवर्तन ये हैं :
हिंदू (१.१५७ < सिंधु) (विदेशी शब्द). °श >स<°ह दह पंच (१.५४ < दस पंच < दश पंच). बारह (१.५४ < द्वादश), चउद्दह (१.१७३ < चतुर्दश) 'द° > र
सतरह (१.५० < सप्तदश) बारह (१.५४ < द्वादश), तेरह (१.७८ < त्रयोदश) । 'द° > 'ल° कलंबअ (<कदंबक) । 'त° > 'र' सत्तरि (१.१२१ < सप्तति), एहत्तरि (१.११७ < एकसप्तति) ।
धाला (१.१९६ < धारा), चमल (१.२०४ चमर) । 'ल° > * दरमरु (१.९२ < दलमलित) । द° > ड
डाहु (२.२१५ < /दह्) । इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि र-ल ध्वनियों का परस्पर-विनिमय वैदिक भाषा तक की विशेषता है तथा म० भा० आ० तथा न० भा० आ० में भी पाया जाता है । 'स' का 'ह' परिवर्तन म० भा० आ० तथा न० भा० आ० की वैभाषिक प्रक्रिया है। गुजराती तथा पश्चिमी राजस्थानी की यह एक खास विशेषता है। मेवाड़ी में पदादि 'स' सर्वत्र 'ह' हो जाता है; किंतु इसका उच्चारण सघोष 'ह' न होकर अघोष सुनाई देता है। उदा० हिन्दी 'सहेली' मेवाड़ी में 'हे'ली सुनाई देता है। मेवाड़ी ने स्पष्टतः सघोष तथा अघोष प्राणध्वनियों के भेद को सुरक्षित रक्खा है, जो इन दो शब्दों की तुलना से स्पष्ट हैं :
मेवा० हीरो (hiro) (खड़ी बोली हीरा)-'रत्नविशेष' । मेवा० हीरो (hiro) (पूरबी राज० सीरो)-'हलवा' ।।
प्रा० पैं० की भाषा में अघोष प्राणध्वनि के कोई संकेत नहीं मिलते जान पडते, क्योंकि पूरबी राजस्थानी, ब्रज तथा खड़ी बोली में 'स' का छुटपुट विकसित रूप 'ह' भी सघोष ही पाया जाता है, मेवाड़ी-मारवाड़ी तथा गुजराती की तरह अघोष नहीं । संयुक्त व्यञ्जनों का विकास
६७. म० भा० आ० में संस्कृत संयुक्त व्यञ्जन ध्वनियों का विकास महत्त्वपूर्ण विषय है। जहाँ संस्कृत में २५० से भी ऊपर संयुक्त व्यंजन ध्वनियाँ पाई जाती है, वहाँ म० भा० आ० में इनकी संख्या बहुत कम रह गई है। संस्कृत में पदादि में भी अनेक संयुक्त व्यञ्जन ध्वनियाँ पाई जाती हैं, किंतु म० भा० आ० में ण्ह, म्ह, ल्ह, तथा विभाषाओं की दृष्टि से व्यञ्जन+रेफ (र) के अतिरिक्त कोई संयुक्त व्यंजन ध्वनि नहीं पाई जाती । पदमध्यग स्थिति में म० भा० आ० में केवल चार तरह की संयुक्त प्वनियाँ मिलती है : (१) व्यञ्जन द्वित्व वाले रूप (क, ग्ग, त्त, ६, प्प, व्व आदि रूप) तथा सवर्गीय महाप्राण से युक्त अल्पप्राण वाली संयुक्त व्यंजन ध्वनियाँ (क्ख, ग्घ, च्छ, ज्झ आदि); (२) ण्ह, म्ह, ल्ह ध्वनियाँ; (३) विभाषाओं में व्यञ्जन + रेफ (र); (४) सवर्गीय अनुनासिक व्यंजन + स्पर्श व्यञ्जन ध्वनि । कहना न होगा, रेफ वाले संयुक्त व्यञ्जनों का अस्तित्व ब्राचड अपभ्रंश की खास विशेषता रहा है, तथा कुछ स्थानों में यह परिनिष्ठित अपभ्रंश में भी पाया जाता है जहाँ कभी कभी निष्कारण रेफ का प्रयोग भी देखा जाता है। प्रा० मैं० में रेफ की यह सुरक्षा या निष्कारण रेफ प्रयोग नहीं पाया जाता, इसका अपवाद केवल 'हृ' ध्वनि है, जहाँ प्रा० पैं० में व्यञ्जन + रेफ का उदाहरण पाया जाता है :-सुंदरिहदहिँ (१.७<सुंदरीहृदे) । पदादि में ण्ह, म्ह, ल्ह के भी निदर्शन प्रायः नहीं पाये जाते, केवल एक स्थान पर 'ह' ध्वनि मिलती है :-हाणकेलिट्ठिआ (२.१८९) । सवर्गीय अनुनासिक व्यंजन + स्पर्श व्यञ्जन १. Kale, M. R. : The Higher Sanskrit Grammar $ 12 (e) pp. 9-11 २. Pischel : Prakrit Sprachen $ 268 3. ibid $ 261 ४. दे० अभूतोपि क्वचित् । (हेम० ४.८.३९९) अपभ्रंशे क्वचिदविद्यमानोपि रेफो भवति ।
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