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________________ ४४२ प्राकृतपैंगलम् vvvv vvv स्पर्श ध्वनि न० भा० आ० में ठीक वही पाई जाती है, जो संस्कृत में, तो वह शब्द शुद्ध तद्भव कभी नहीं माना जा सकता, वह या तो तत्सम है या अर्धतत्सम । प्रा० पैं० की भाषा के तद्भवों में इस प्रक्रिया के ये रूप मिलते हैं :'क' > ० सअल (१.१११ < सकल), कणअ (१.१० < कनक), केअइ (२.९७ < केतकी), कोइल (२.८७ < कोकिल) वाउल (२.१९७ < व्याकुल) *ग > 0 साअर (१.१. < सागर), उरअ (२.१९०<उरग), णाअरि (२.१०५ < नागरी), जुअल (१.२०२ < युगल). 'च' > ० "वअणि (२.५७ < वचना), लोअण (२.१६३ < लोचन). > ० भूअ (=भुअ १.११ < भुजा), गअ (१.१९३ < गज) राआ (१.१६९ < राजा). 'त° > ० माई (१.३ < मातृ-), 'जुओ (१.२ < 'युतः), पाडिओ (१.२ < पातितः), अमिअ (२.५७ < अमृत), गइ (२.१२० < गति) पिअरि (१.१६६. < पीत+री) भेअ (१.१२ < भेद), पअ (१.९२ < पद), सरिस (१.११७ < सदृश), आइ (२.८६ < आदि), 'वअणा (१.९९ < 'वदना), कुमुअ (२.२०१ < कुमुद). 'प° > ० रूए (१.३ < रूपेण), कामरूअ (२.१११ < कामरूप), कोइ (२.१६१ < कोपि) चाउ (२.१६१ < चाप:). 'य° > विलअ (२.२१२ < विलय), णअण (२.२१५ < नयन), समअ (२.२१३ < समय), सअण (२.२१३ < शयन), खत्तिअ (२.२०७ < क्षत्रिय), कालिअ (१.२०७ < कालिय). 'व' > ० देओ (१.३ < देवः) कइ (१.९७ < कवि) अट्ठाइस (१.१०५ < अष्टाविंशत्). महाप्राण स्पर्शों का विकास :'ख° > ह सेहरो (१.१६ < शेखरः), सुह (१.३६ < सुख), विमुह (१.८७ < बिमुख) । 'घ° > ह लहु (१.२ < लघु), दीहो, (१.२ < दीर्घः), मेहो (१.२८ < मेघः) । 'थ° > ह जूह (२.१५७ < यूथ), रह (१.१९३ < रथ), अणहा (१.१०५ < अन्यथा), कहइ (२.१९० < कथयति)। °घ° > ह विविह (१.१ < विविध), वसुहाहिव (१.२५ < वसुधाधिप) पअहर (१.२५ < पयोधर), बुहअण (१.२५ < बुधजन) । °भ° > ह करही (१.१३५ < करभिका), खुहिअ (१.१५१ < क्षुभित क्षुब्ध), वल्लहो (१.५५ < वल्लभः), सुरही (१.७९ < सुरभिका)। म० भा० आ० में आकर टवर्गीय अघोष ध्वनियों का नियत रूप से सघोषीभाव (voicing) मिलता है। वैसे अपभ्रंश में 'क, च, त, प' तथा 'ख, छ, थ, फ' के भी सघोषीभाव के संकेत मिलते हैं। प्रा० पैं० में टवर्ग से इतर ध्वनियों में सघोषीभाव के सिर्फ छुटपुट उदाहरण मिलते हैं, तथा 'मअगल (२.९९ < मदकल) आणीदा (२.१८९ < आनीता), अब्भुद (२.१८९ < अद्भुत) । 'प' के 'व' वाले रूप अनेक मिलते हैं, जो सम्भवतः प < ब<व के क्रम से विकसित हुए जान पड़ते हैं । सघोषीभाव के उदाहरण ये हैं । कोडी (१.५० < कोटि, कोटिका), खडा (२.५२ < षट्), गुडिआ (१.६७ < गुटिका), कडक्ख (१.४ < कटाक्ष)। 'ठ', (<थ) > ढ पढम (१.१ तथा अनेकश: <*पठम <प्रथम) पढइ (१.८ < पठति) । 'प° >*ब *व >व णीवा (१.१६१ < नीपाः), परिठवहु (१.१४ < परिस्थापयत), सुरवइ (१.१९ < सुरपति), अवर (१.१३४ < अपर), कविला (२.९७ < कपिलाः), किवाण (२.१६९ < कृपाण), कुविअ (२.१९७ < कुपित) । इसी तरह कई स्थानों पर 'त' का प्रतिवेष्टितीकरण (retroflexion) कर तब सघोषीभाव मिलता है :-पाडिओ (१.२ <*पाटिओ < पातितः), पडु (१.६, पडु <पडिअ-<*पटिअ पतितः) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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