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________________ ध्वनि-विचार ४४१ प्रा० पैं० में य-श्रुति वाले रूप नहीं मिलते, केवल एक निदर्शन 'जणीयो' है। प्राकृत की भाँति यहाँ विवृत्ति को सुरक्षित रखा गया है। विवृत्त स्वरों के उच्चारण की स्थिति में दोनों स्वरों के बीच उच्चारणकर्ता स्फोट का निरोध करता है, फलतः दोनों के बीच कण्ठनालिक स्पर्श (glottal stop; glottal occlusion) का प्रयोग पाया जाता है । प्रा० पैं. से उद्वृत्त स्वरों की विवृत्ति के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं :-साअर (१.१), णाओ (१.१.), रूए (१.३), हेओ (१.३), वुड्डओ (१.३), मिलिआ (१.५), होइ (१.५), पअ (१.७), तुरिअ (१.८), पढिओ (१.८), तुलिअं (१.१०), पढइ ((१.११), जाणेइ (१.११), तिलोअणा (१.७७), सुरअरु (१.७९), लोआणं (१.८४), जुअल (१.८६), मिअणअणि (१.८६), पिअइ (१.७८), तिहुअण (१.८७) हंसीआ (१.८९) । प्रा० पैं० में कई स्थानों पर उद्वृत्त स्वरों के संधिज रूप भी मिलते हैं : अंधार (१.१४७ < अंधआर), कहीजे (१.१०० < कहिज्जइ), किज्जे (१.१९५ < किज्जइ), खाए (२.१८३ < खाअइ), थक्के (२.२०४ < थक्कइ) । इन संधिज रूपों के लिए विशेष दे० % ३७ । व्यंजन-परिवर्तन ६६. असंयुक्त व्यंजनों का विकासः-प्राकृत-काल में संस्कृत व्यञ्जन ध्वनियों के विकास की कहानी बड़ी मजेदार है। असंयुक्त व्यञ्जन ध्वनियों की स्थिति में विचित्र परिवर्तन दिखाई पड़ता है। म० भा० आ० में पदादि स्पर्श व्यंजन ध्वनियों की यथास्थित सुरक्षा पाई जाती है, किंतु स्वरमध्यग अल्पप्राण स्पर्श ध्वनियों एवं य तथा व ध्वनि का लोप हो जाता है। स्वरमध्यग महाप्राण स्पर्श ध्वनियों का विकास 'ह' के रूप में पाया जाता है । यह अल्पप्राण ध्वनियों का लोप तथा महाप्राण ध्वनयिों के स्पर्शीश का लोप कैसे हुआ, इस विषय में विद्वानों ने कुछ कल्पनायें की हैं । डा० चाटुा ने बताया है कि म० भा० आ० की प्रथम स्थिति में उक्त स्पर्श ध्वनियों तथा य, व, का विकास सोष्म व्यंजनो (Spirants) के रूप में हो गया था । अगली स्थिति में आकर ये सोष्म व्यंजन लुप्त हो गये तथा इनके स्थान पर उद्वृत्त स्वर पाये जाने लगे। उदाहरणार्थ-प्रा० भा० आ० द्यूत-, द्विगुण-, शुक-, ताप, हृदय-, दीप-, शाब-' का विकास न० भा० आ० में 'जूआ, दूना, सुआ, ता (ताअ), हिआ, दिआ, छा' होने के पहले ये म० भा० आ० में "जूद, दिगुण, सुरा, ताब, हिदअ, दिबा, छाब', की स्थिति से जरूर गुजरे होंगे । इसी तरह इनके महाप्राण स्पर्शों में भी यह विकास 'मुख > मुघ > मुघ < मुह; लघु > लघु > लहु; कथयति > कधेदि > कधेदि > कहेइ, कहे; वधू > वधू > वहू, बहू; शेफालिका > * शेभालिगा >* शेभालिग़ा >* शेहालिअ> मध्य-बँगला, शिहली > नव्य बँगला, शिउलि; गभीर < गभीर > गहीर (हि० गहरा, गहिरा) इस क्रम से हुआ जान पड़ता है। प्रा० पैं० की भाषा ने तद्भव शब्दों में इसी विकास-प्रक्रिया को अपनाया है; किंतु यहाँ कई शब्दों में स्वरमध्यग स्थिति में स्पर्श व्यञ्जन ध्वनियों का अस्तित्व भी पाया जाता है तथा उनका लोप नहीं मिलता । प्रा० ० के समय की कथ्य भाषा में शब्दों का तत्सम-बाहुल्य होने लगा था और आगे चलकर मध्यकालीन हिंदी में तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्दों का आधिक्य पाया जाता है। इन रूपों में स्वरमध्यग स्पर्श व्यञ्जन ध्वनियाँ पाई जाने लगी । जैसा कि डा० चाटुा ने संकेत किया है कि संस्कृत (या जैसे उर्दू के संबंध में फारसी-अरबी) शब्दों के ग्रहण तथा नये शब्द-निर्माण के कारण इस ध्वन्यात्मक प्रक्रिया (अल्पप्राण स्पर्श ध्वनियों के लोप तथा महाप्राण स्पर्श के 'ह' वाले रूप) का विशेष महत्त्व नव्य भारतीय आर्य भाषाओं के लिये नहीं रहा ।५ फलतः जहाँ कहीं स्वरमध्यगत 8. Hiatus involves the chest arrest of one vowel followed by the even or stopped release of the next, with a cessation of sound between the two vowels. Almost inevitably the cessation of sound is achieved by a glottal occlusion. -ibid p. 184 २. कगचजतद्वपयवां प्रायो लोपः" (प्राकृतप्रकाश २.२) । ३. खघथघभां हः ॥ (प्रा० प्र० २, २७) । ४. Chatterjea : 0. D. B. L. Vol. I $ 135. p. 253-53 4. But owing to the NIA. languages having largely replenished themselves by borrowings from Sanskrit (Or Perso-Arabic, as in the case of urdu) and by new formations, the full significance and importance of this change in the history of IA. is not fully recognised.-0.D. B. L. $135.p. 252. (साथ ही दे०) Bloch : La Langue Marathes 14,81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.com
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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