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गुणसंबंधी स्वर- परिवर्तन
प्राकृतपैंगलम्
$ ६४. स्वरों के गुण-संबंधी परिवर्तन के कतिपय उदाहरण ये हैं
:
अ < उ—मुणहु (१.३६ < / मन्- ) ।
इ> उ-दुण्णा (१.४२ - द्विगुण) । ई ऊ विहूणं (१.११ विहीनं) ।
> अकत्थवि (१.४ - कुत्रापि ) ।
ऊ एडर (१.२१ ८ नूपुर) ।
ए> इ (ई) इआलिस) (१.१५९ एकचत्वारिंशत् ) सुरिंद (१.२८ सुनरेंद्र) मइन्दह (१.२९ < मृगेंद्र), केसु (२.१७९ - किंशुक), जहिच्छं (१.६९ < यथेच्छं ), णिवाला (१.१९८ < नेपाल) ।
ऐ इधिज्जं (१.४ < धैर्यं) ।
ऐ > अइ - वइरि (१.३७ < वैरी), भइरव (१.१९० < भैरव) ।
ओ
सुहइ (१.८६
शोभते ।
ओ (औ) अजुव्वण (१.१३२ - जोव्वण यौवन) ।
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इन परिवर्तनों को देखने से पता चलता है कि ये समीकरण, विषमीकरण, विपर्यय (metathesis) जैसी ध्वन्यात्मक प्रक्रियाओं के कारण पाये जाते हैं । यथा 'मुणहु' में अ का उ सं० 'मनुते' की उ-ध्वनि का स्थान - विपर्यय करने से रैं हुआ । 'विहूणं' मे द्वितीय 'ई' ध्वनि को विषमीकरण के द्वारा ऊ बना दिया है। सुणरिंद, जुव्वण जैसे स्थलों में ए. ओ (<औ) का इ, उ रूप 'मात्रा नियम' का प्रभाव है। 'सुहइ' में संभवतः पदाद्यक्षर के बलाघात के स्थान परिवर्तन के कारण 'ओ' का 'उ' हो गया है। प्रा० पै० में सोहई' रूप भी मिलता है, किंतु 'सुहइ' को केवल छन्दोनिर्वाहार्थ ह्रस्वीकरण न मानकर कथ्य भाषा की विशेषता मानना होगा। कथ्य राजस्थानी में यह 'उ' जो मूल धातु (शुभ) में भी है, 'सोहइ' के साथ साथ वैकल्पिक रूप 'सुवाबो' (= *सुहाबो) में देखा जाता है ।
उद्वृत्त स्वरों की स्थिति
$ ६५ संस्कृत की स्वरमध्यग अल्पप्राण स्पर्श ध्वनियाँ प्राकृत में लुप्त हो गई थीं । डा० चाटुर्ज्या की मान्यता है कि ये ध्वनियाँ पहले सोष्म ग़, ज़, द की स्थिति से गुजरी होंगी । इस प्रकार सं० क > > > अ; ग > ग़ > अ; च > ज > ज़ अ; ज> > अ के क्रम से इनका लोप संभव है । इन ध्वनियों का लोप होने पर प्राकृत में एक साथ दो स्वर ध्वनियों की विवृत्ति (Hiatus) पाई जाने लगी। इन दो स्वर ध्वनियों के एक साथ उच्चारण की तीन तरह की प्रक्रिया हो सकती थी, (१) या तो इन्हें उद्वृत्त या विवृत्त रूप में सुरक्षित रखा जा सकता था, परिनिष्ठित प्राकृत ने इसी पद्धति को अपनाया है; (२) या दोनों स्वरों के बीच किसी श्रुति (य या व) का प्रयोग किया जाता जैन महाराष्ट्री तथा अपभ्रंश ने य- श्रुति वाले रूपों का विकास किया है; (३) या दोनों स्वरों में सन्धि कर दी जाती । पिछली प्रक्रिया के कुछ छुटपुट बीज प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी मिल जाते हैं। संस्कृत में नियत रूप से ऐसे स्थलों पर सन्धि पाई जाती है। पद में सन्निहित दो स्वर ध्वनियों की यह प्रक्रिया शुद्ध ध्वन्यात्मक है तथा प्राकृत अपभ्रंश या भारतीय भाषावर्ग की ही विशेषता न होकर सामान्यतः ध्वनिविज्ञान का महत्त्वपूर्ण तथ्य है।"
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१. चाटुर्ज्या भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी पृ० ९१
3. When in a speech form or phrase two vowels are made contiguous at the boundary between two syllables, several things are possible. A syllable may be lost by contraction, or crasis, or diphthongization, or a hiatus may be produced. A hiatus may be relieved by an intervocalic glide or by a linking consonant. -Heffner : General phonetics $7.553, p. 184
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