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________________ ध्वनि-विचार ४२३ इस संबंध में यह कह देना आवश्यक होगा कि संदेशरासक के तीनों हस्तलेखों में सानुनासिक तथा अननुनासिक रूपों में एकरूपता पाई जाती है । जहाँ -हिं मिलता है, वहाँ तीनों हस्तलेखों मे -हिं ही है, और जहाँ -हि है, वहाँ तीनों में -हि ही । कहना न होगा, संदेशरासक के हस्तलेखों में * के लिए सर्वत्र चिह्न का प्रयोग मिलता है। यही कारण है कि श्री भायाणी के समक्ष ठीक वैसी समस्या नहीं थी, जैसी हरिवंशपुराण को संपादित करते समय अल्सदोर्फ ने लक्षित की थी। प्राकृतपैंगलम् की यह समस्या ठीक वैसी ही है, जैसी हरिवंशपुराण के विविध हस्तलेखों की । वहाँ विभिन्न हस्तलेखों में एक ही स्थान पर विभिन्न रूप मिलते हैं । उदाहरणार्थ, हरिवंशपुराण के A हस्तलेख में अकारांत स्त्रीलिंग एवं सभी प्रकार के इकारांत एवं उकारांत शब्दों के अधिकरण ए० व० के रूप -हिं लिखे मिलते हैं, जबकि B तथा C हस्तलेख में यहाँ -हे रूप मिलते हैं । यही कारण है कि अल्सदोर्फ के समक्ष संभाव्य मूल वर्तनी को निर्धारित करने की समस्या खास थी। इस प्रकार की वर्तनी संबंधी समस्या का खास कारण यह है कि "म० भा० आ० में अनुस्वार के अतिरिक्त हमें दो प्रकार के नासिक्य स्वर उपलब्ध होते हैं, जिनमें एक अनुस्वार के चिह्न से व्यक्त किया जाता है, इतर अनुनासिक के चिह्न से" ।२ पदांत स्थिति में प्रायः इन दोनों प्रकार के नासिक्य स्वरों का विभेद स्पष्ट परिलक्षित नहीं होता, तथा उन स्थानों पर जहाँ इनके मूल का स्पष्ट एवं निश्चित संकेत नहीं किया जा सकता, यह विभेद स्पष्ट नहीं है। प्राकृत में कारण ब० व० में हमें एक साथ -हिं, -हिँ, तथा –हि तीनों रूप मिलते हैं । "यदि इसका मूल वै० सं० देवेभिः के समानान्तर माना जाय, तो -हिँ वाला रूप अधिक संभव है तथा यहाँ नासिक्य स्वर मानना होगा, दूसरी ओर हम इसको मूल ग्रीक शब्द 'देओफिन' (deophin) का समानान्तर मानें, तो अनुस्वार ही अधिक संभाव्य है ।" शुद्ध अनुस्वार तथा नासिक्य स्वर का विभेद यह है कि जहाँ * का संबंध पूर्ववर्ती न्, म् से जोड़ा जा सके वहाँ अनुस्वार होगा, अन्यत्र नासिक्य स्वर। यह नासिक्य स्वर कहीं तो · के द्वारा और कहीं के द्वारा चिह्नित किया जाता है। पुराने हस्तलेखों में प्रायः का प्रयोग नहीं के बराबर देखा जाता है और इसका अनुमान प्राकृत वैयाकरणों के विवरणों से ही हो पाता है। पिशेल ने बताया है कि हाल की गाथासप्तशती के हस्तलेख में गाथा ६५१ में 'जाइँ वअणाइँ पाठ मिलता है, जबकि बम्बई वाले काव्यमाला संस्करण में 'जाणि वअणाणि' पाठ उपलब्ध है; हेमचन्द्र के सूत्र ३.२६ के अनुसार 'जाइँ वअणाइँ' पाठ होना चाहिए तथा वेबर के मतानुसार यह पाठ छन्द की गति के विरुद्ध नहीं जाता । (६ १७९). प्राकृत वैयाकरणों के मतानुसार -ई, -हिं, -उ, -हुं, -हं को पदान्त में विकल्प से ह्रस्व माना जा सकता है, तथा संगीत रत्नाकर ने अपभ्रंश के - हं, -इं को पदमध्य में भी विकल्प से ह्रस्व मानने का विधान किया है। * अनुनासिक चिह्न के प्रयोग के विषय में संपादित ग्रन्थों में भी दो तरह के रूप देखे जाते हैं। कुछ विदेशी विद्वान् * चिह्न को सर्वथा छोड़ देते हैं तथा अननुनासिक रूप का ही प्रयोग करते हैं। प्रो० पंडित ने अपने 'गउडबहो' के संस्करण में अनुस्वार के साथ अर्धचन्द्र का प्रयोग कर अनुनासिक की व्यंजना कराई है, जैसे 'अंगाइँ विण्हुणो', भरिआइँ व (१.१६) । काव्यमाला से संपादित गाहासत्तसई तथा सेतुबंध में भी म० म० दुर्गाप्रसाद एवं म० म० शिवदत्त ने अर्धचन्द्र का प्रयोग किया है। काव्यमाला से 'प्राकृतपिंगलसूत्राणि' शीर्षक से प्रकाशित 'प्राकृतपैंगलम्' के संपादन में तो पं० शिवदत्त ने अर्धचन्द्रयुक्त अनुस्वार का प्रयोग प्रचुरता से किया है। वस्तुतः अर्धचन्द्र का प्रयोग वहाँ किया गया है, जहाँ छन्दोऽनुरोध से ह्रस्व अक्षर अभीष्ट है। डा० हरमन याकोबी ने अपने 'भविसत्तकहा' के संपादन में ऐसे स्थानों पर सर्वत्र * का प्रयोग किया है । जहाँ तक उन्हें प्राप्त हस्तलेखों का प्रश्न है, वे स्वयं इस बात का संकेत करते हैं कि हस्तलेखों में इसके लिए अनुस्वार का ही प्रयोग मिलता है। "समस्त प्राकृत हस्तलेखों की भाँति, कतिपय अपवादों को छोड़कर, हमारे हस्तलेख में वास्तविक १. Sandesarasaka (Study) $3. 8. Neben dem Anusvara besitzt das Pkt. zwei Nasalvocale, von denem der eine durch das zeichen des Anusvara, der andere durch das der Anunasika ausgedruckt wird. - Pischel $ 178. p. 131. ३. इनमें प्रमुख वेबर हैं, जिनके मत का उल्लेख पिशेल ने 8 १८० में किया है। 8. Jacobi : Bhavisattakaha von Dhanavala. p. 23 (Abhandlung). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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