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प्राकृतपैंगलम् में ऐसे स्थलों पर प्रायः ण-ग्रह रूप ही मिलते हैं, जो लिपिकारों पर प्राकृत का प्रभाव है। मैंने अपने संस्करण में तो इन स्थानों पर 'ण-ण्ह' को हटाकर 'न-न्ह' कर देने की अनधिकार चेष्टा नहीं की है, किंतु मेरा विश्वास है तथा इस विश्वास के पर्याप्त भाषावैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं कि इस काल में पदादि में 'न' ध्वनि सुरक्षित थी, तथा 'न्ह' एवं 'न' जैसी संयुक्त ध्वनियाँ भी थीं जब कि हस्तलेखों में इनके लिए भी पह-एण संकेत मिलते हैं। पदमध्य में अवश्य 'ण' ध्वनि थी। यद्यपि ब्रजभाषा में यह पदमध्य में भी 'न' ही है । तथापि पूर्वी राजस्थानी में यह आज भी पाई जाती है, तथा 'प्राकृतपैंगलम्' कालीन उच्चरित भाषा में पदमध्यगत 'ण' का अस्तित्व था । इसी प्रकार पदमध्यगत उत्क्षिप्त प्रत्तिवेष्टित 'ड' का भी, जो वस्तुतः 'ड' ध्वनि (Phoneme) का ही स्वरमध्यगत ध्वन्यंग (allophone) है, अस्तित्व रहा होगा । इस पदमध्यगत 'ड़' का कतिपय हस्तलेखों में 'ल' रूप भी मिलता है। 'ल' के उत्क्षिप्त प्रतिवेष्टितरूप 'ळ' का अस्तित्व प्रा० पैं० की भाषा में नहीं जान पड़ता, जो आज की राजस्थानी विभाषाओं में पाया जाता है।
उपर्युद्धत तालिका में हमने ण्ह, न्ह, म्ह, ल्ह ध्वनियों का अस्तित्व माना है, जो क्रमशः ण, न, म तथा ल के सप्राण (aspirated) रूप हैं । आधुनिक भाषाशास्त्री इन्हें संयुक्त ध्वनियाँ न मानकर शुद्ध ध्वनियाँ मानने के पक्ष में है। ब्रजभाषा में न्ह, म्ह, ल्ह ये तीन ध्वनियाँ पाई जाती हैं और 'तुहफतु-ल-हिंद' के लेखक मिर्जा खाँ इब्न फखद्दीन मुहम्मद ने इन्हें शुद्ध प्वनियाँ ही माना है। अपने ग्रंथ में 'ब्रजभाखा' के व्याकरण से संबद्ध अंश में उसने इन्हें प्राणतारहित न, म, ल से भिन्न बताने के लिये उन्हें 'कोमल' कहा है, तो इन्हें 'कठोर' (शकीलह) :- जैसे न्ह (नून-ए शक़ीलह, उदा० कान्ह), म्ह (मीम्-ए-शकीलह, उदा० ब्रम्हा), ल्ह (लाम्-ए-शकीलह, उदा० काल्ह) । अनुस्वार तथा अनुनासिक
४८. अनुस्वार तथा अनुनासिक के विभिन्न लिपि-संकेतों ( तथा *) का स्पष्ट भेद प्राकृतपैंगलम् के अधिकांश हस्तलेखों में नहीं मिलता । केवल जैन उपाश्रय, रामघाट बनारस से प्राप्त सं० १६५८ वाली C प्रति में ही अनुनासिक का चिह्न मिलता है, किंतु यह भी सर्वत्र नहीं । कई स्थानों पर जहाँ व्याकरण अथवा छन्दोनिर्वाह की दृष्टि से अनुनासिक अभीष्ट है, इसी प्रति में अनुस्वार भी मिलता है। बाकी हस्तलेखों में प्रायः अनुस्वार ही उपलब्ध है। अनुनासिक को कई स्थान पर चिह्नित नहीं भी किया जाता, और सानुनासिक स्वर को अननुनासिक ही लिखा गया है। कहीं कहीं पदांत सानुनासिक स्वर के पूर्ववर्ती स्वर को भी अनुस्वारयुक्त लिखा गया है। जैन उपाश्रय से प्राप्त अपूर्ण हस्तलेख D में यह विशेषता परिलक्षित होती है, जहाँ 'काइँ (१.६), णामाइं (१.५९)' को क्रमश: 'कांइं, णामाई' लिखा गया है। पादांत इँ को कई स्थानों पर अननुनासिक दीर्घ 'ई' के रूप में भी लिखा गया है, और हमारे C हस्तलेख की यह खास विशेषता है, जहाँ ‘णामाई' (१.५८) जैसे रूप भी मिलते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि एक ही सविभक्तिक पद कहीं सानुनासिक लिखा गया है, तो कहीं अननुनासिक और कहीं सानुस्वार, और कभी कभी तो यह विभेद एक ही हस्तलेख में भी मिल जाता है । जैसे C हस्तलेख में जहाँ एक ओर माणहिँ (१.६), काँइ (१.६) रूप मिलते हैं, वहाँ दूसरी ओर खग्गेहि (१.११) (खग्गेहिँ), सव्वेहि लहुएहि (१.१७) (सव्वेहिँ लहुएहिँ), पहरणेहि (१.३०) (=पहरणेहिँ) जैसे रूप भी मिलते हैं। यह विचित्रता संदेशरासक के हस्तलेख में भी उपलब्ध है तथा श्री भायाणी ने वहाँ प्राप्त सानुनासिक तथा अननुनासिक रूपों की गणना यों उपस्थित की है :-२
सप्तमी (अधिकरण) बहुवचन -हिँ (१३) -हि (१३) तृतीया ( करण) बहुवचन -हिँ (३१)
-हि (५०) सप्तमी (अधिकरण) एकवचन -हिँ (३) -हि (१५) तृतीया (करण) एकवचन -हिँ (११) -हि (११)
१. M. Ziauddin : A Grammar of the BrajBhakha by Mirza khan. p. 11 (साथ ही) Dr. Chatterjea's forward
p.x.
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