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प्राकृतपैंगलम् (२) मध्यम पुरुष-सोहर तोहर संकट संहर (२.२४) । तुम्ह धुअ हम्मीरो (१.७१) । तुहु जाहि सुंदरि अप्पणा (२.९१) । तइ इथि णइहि सँतार देइ (१.९) । सो तुह संकर दिज्जउ मोक्खा (२.१०५) । सई उमा, रखो तुमा (२.८) । (३) उत्तम पुरुषः-णच्चंती हम्मारो, दूरित्ता संहारो (२.४२) । गई भवित्ती किल का हमारी (२.१२०) । दिसइ चलइ हिअअ डुलइ हम इकलि वहू (२.१९३) ।
४३. प्रा० पैं. की पुरानी हिंदी के क्रियारूपों में कुछ खास विशेषतायें ऐसी भी परिलक्षित होती हैं, जिन्हें न० भा० आ० की प्रवृत्ति कहा जा सकता है ।
(१) वर्तमानकालिक अन्य पुरुष ए० व० तथा ब० व० में निविभक्तिक धातु रूपों का प्रयोग देखा जाता है, जो उक्तिव्यक्ति की भाषा में भी पाया जाता है तथा इसका संकेत डा० चाटुा ने किया है। प्रा० पैं० के उदाहरण निम्न
___ तत्थ देक्ख हरिबंभ भण (१.१०८), वेआला जा संग णच्च दुट्ठा णासंता (१.११९), भमइ महुअर फुल्ल अरविंद (१.१३५), वरिस जल भमइ धण (१.१६६), जे कर पर उवआर हसंतउ (२.१४) ।
(२) इसके अतिरिक्त वर्तमानकालिक कृदंत का समापिका क्रिया के रूप में प्रयोग भी प्रा० पैं० की भाषा की नव्य प्रवृत्तियों का द्योतक है। ब्रज-खड़ी बोली में यह विशेषता पाई जाती है, जहाँ वर्तमानकालिक कृदंत रूपों के साथ सहायक क्रिया का प्रयोग कर 'जाता है', 'जाते हैं', 'जाता हूँ', 'जाती है' जैसे रूप निष्पन्न होते हैं । प्रा० पैं० में इसके साथ सहायक क्रिया (Vहो) का प्रयोग नहीं होता, प्रायः इसका आक्षेप कर लिया जाता है; जैसे :- राअह भग्गंता दिअ लग्गंता (१.१८०), धाइ आइ खग्ग पाइ दाणवा चलंतआ (२.१५९), वहइ मलअ वाआ हंत कंपंत काआ (२.१६५), सव्वा दीसा झंपंता (२.१९५) ।
(३) इसके साथ ही प्रा० पैं० में वर्तमानकालिक अन्य पु० ए० व० तथा ब० व० में उन रूपों का अस्तित्व भी है, जो विवृत्त स्वरों की संधि कर बनाये गये हैं। आवे (२.३८ < आवइ), चलावे (२.३८ < चलावइ), णच्चे (२.८१ < णच्चइ), जंपे (२.८८ < जंपइ), करे (१.१९० < करइ), खाए (२.१८३ < खादन्ति), कहीजे (१.१०० < कथ्यन्ते), थक्के (२.२०४ <*स्थगन्ति)।
इनके अतिरिक्त न० भा० आ० के करूँ (खड़ी बोली), करौं (ब्रज०) जैसे रूपों के पूर्वरूप 'करउँ'; आज्ञा प्रकार के निर्विभक्तिक रूप, इज्ज < ईजे वाले सरलीकृत विध्यर्थ (Optative) रूप भी प्रा० ० की भाषा में देखे जा सकते हैं।'
४४. भूतकालिक कर्मवाच्य कृदंत का प्रयोग कर भूतकालिक समापिका क्रिया का द्योतन कराना न० भा० आ० की खास विशेषता है। प्रा० पैं० में इस प्रवृत्ति के प्रचुर निदर्शन मिलते हैं। कर्मवाच्य रूपों के साथ तृतीयांत कर्ता का प्रयोग संस्कृत-प्राकृत की खास विशेषता है; किंतु प्रा० पैं. में ऐसे रूप भी देखे जाते हैं, जहाँ कर्तृवाच्य में भी उक्त कृदंत रूपों का प्रयोग पाया जाता है :
(१) कर्मवाच्य प्रयोग :-पिंगले कहिओ (१.१६), फणिंदे भणीओ (२.१५), पिंगलेण वखाणिओ (२.१९६), सव्व लोअहि जाणिओ (२.१९६), रह धुल्लिअ झंपिअ (१.९२), किअउ कट्ठ हाकंद मुच्छि मेच्छहके पुत्ते (१.९२), धूलिहि गअण झंपिओ (१.१५६)।
(२) भाववाच्य तथा कर्तृवाच्य प्रयोग :-मेरु मंदर सिर कंपिअ (१.९२), सव्व देस पिकराव वुल्लिअ (१.१३५), १. Chatterjea : Uktivyakti (Study) 871, p. 57 २. दे० भाषाशास्त्रीय अनुशीलन का 'क्रिया-प्रकरण' ।
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