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प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी
४१७ ६४०. प्रा० पैं० की पुरानी पश्चिमी हिंदी में ऐसे अनेकों उदाहरण मिलते हैं, जहाँ कर्ता-कर्म ए० व० के अतिरिक्त अन्य कारकों में भी निविभक्तिक पदों के प्रयोग मिलते हैं :
(१) करण ए० व० :-भअ भंजिउ वंगा (१.१४५); पाअभर मेइणि कंपइ (१.१४७), हअ गअ पाअ घाअ उटुंतउ धूलिहि गअण झंपिओ (१.१५५) दल दलिअ चलिअ मरहट्ठ बलं (१.१८५), चलंत जोह मत्त कोह (२.१६९), पक्खर वाह चलू रणणाह फुरंत तणू (२.१७१)
(२) अधिकरण ए० व० :-कण्ण चलंते कुम्म चलइ (१.९६), कुम्म चलंते महि चलइ (१.९६), बंधु समदि रण धसउ (१.१०६), उड्डुउ णहपह (१.१०६), सुलताण सीस करवाल दइ (१.१०६), णअण अणल गल गरल (१.१११), दिगमग णह अंधार (१.१४७), भमइ घण गअण (१.१६६) को कर बब्बर सग्ग मणा (२.९५).
(३) करण ब० व०-खुर खुर खुदि खुदि महि घघर रख कलइ (१.२०४) झत्ति पत्ति पाअ भूमि कंपिआ (२.१११).
(४) अधिकरण ब० व०-सव पअ मुणि दिअगण दिअ (१.२०२), सव दीस दीसइ केसु काणण पाण वाउल भम्मरा (२.१९७), केअइ धूलि सव्व दिस पसरइ (२.२०३).
निविभक्तिक पदों का यह प्रयोग मध्यकालीन हिंदी कविता में खास तौर पर पाया जाता है।
६ ४१. प्रा० पैं. की पुरानी पश्चिमी हिंदी में परसर्गों का प्रयोग भी चल पड़ा है। आगे चल कर ये परसर्ग अधिकाधिक प्रयुक्त होने लगे हैं । नव्य तथा पुरानी पश्चिमी राजस्थानी के रो-रा-री, नउ-ना-नी, तणउ-तणा-तणी जैसे परसर्ग यहाँ नहीं मिलते, साथ ही राज०, ब्रज०, खड़ी बोली के 'ने' का प्रयोग भी यहाँ नहीं मिलता । प्रा० पैं० की भाषा परसर्गों की दृष्टि से समृद्ध नहीं कही जा सकती । इसका प्रमुख कारण प्राचीन शैली का निर्वाह तथा काव्यबद्धता है । फिर भी कुछ परसर्गों के प्रयोग ये हैं :
(१) सउ (हि० से, सैं, राज०-सँ)-एक सउ (१.४६ < एकेन समं), संभुहि सउ (१.११२ = शंभुमारभ्य), -करण तथा अपादान का परसर्ग;
(२) सह-पाअ सह (२.१६१)-करण का परसर्ग; (३) कए-तुम्ह कए (१.६७)-संप्रदान का परसर्ग; (४) लागी-काहे लागी बब्बर वेलावसि मुझे (१.१४२)-संप्रदान का परसर्ग; (५) क-धम्मक अप्पिअ (१.१२८, २.१०१ < धर्माय अपितं)-संप्रदान का परसर्ग
(६) क, का, के,-संबंध के परसर्ग; यहाँ खड़ी बोली वाला 'का' तथा इसका तिर्यक् 'के' तो मिलते हैं, किंतु 'को' (पूरबी राज० का रूप) नहीं मिलता । गाइक घित्ता (२.९३) देवक लेक्खिअ, (२.१०१), ताका पिअला (२.९७), मेच्छहके पुत्ते (१.९२), कव्वके (१.१०८ क) ।
(७) मह, उवरि, उप्पर-उप्परि, मज्झ-मझे-अधिकरण कारक के परसर्ग-कोहाणलमह (१.१०६), सिरमह (१.१११), सअल उवरि (१.८७), वाह उप्पर पक्खर दइ (१.१०६), वीर वग्ग मज्झ (२.१६९), संगाम मज्झे (२.१८३) ।
६ ४२. प्रा० पैं० के अनेक सार्वनामिक रूप न० भा० आ० की आकृतिगत (morphological) प्रवृत्ति का संकेत कर सकते हैं :
(१) अन्य पुरुष :-जेत्ता जेत्ता सेत्ता तेत्ता कासीस जिण्णिआ ते कित्ती (१.७७). जा अद्धंगे पव्वई सीसे गंगा जासु (१.८२) केसे जिविआ ताका पिअला (२.९७) ताक जणणि किण थक्कउ बंझउ (२.१४९) काहु णाअर गेह मंडणि (२.१८५) । जो चाहहि सो लेहि (१.९) ।
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