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________________ ४१६ प्राकृतपैंगलम् धणेसा (१.२१० < धनेश:), सग्गा (२.२५ < स्वर्गः), कलत्ता (२.११७ < कलत्रं), बीसा (२.१२२ < विषं), चम्मा (२.१२३ < चर्म), दक्खा (२.१८१८ दक्षः), दोहरा (१.१९६८ दीर्घः) । (३) वे आ-रूप जो व० व० रूप है, खड़ी बोली के ए० व० रूप नहीं सजणा (१.९४ < सज्जनाः), मत्ता (१.१३९ < मात्रा :), णीवा (१.१६६ < नीपा:), करा (२.५५ < करा:), (२.११६ < छेकाः), बाला (२.१९५ < बालाः), वुड्ढा (२.१९५ < वृद्धा:), कंपंता (२.१९५ < कम्पन्त) | डा० नामवरसिंह ने अपनी पुस्तक 'पृथ्वीराजरासो की भाषा' में प्रा० पैं० से कुछ ऐसे उदाहरण दे दिये हैं, जिन्हें वस्तुतः ब्रजभाषा के आकारांत तथा ओकारांत पुल्लिंग संज्ञा-विशेषण के रूप में नहीं माना जा सकता। उनके द्वारा ओकारांत प्रवृत्ति के रूप में उदाहृत 'बुड्डो'' रूप प्रा० पैं० में कहीं नहीं मिलता । वस्तुत: यह प्राकृत का 'वुड्डुओ (१.३) है, जिसे हमने ऊपर संकेतित किया है। यदि यह रूप मिलता, तो उसे राजस्थानी - ब्रज की प्रवृत्ति निःसन्देह माना जा सकता था । उनके द्वारा उदाहृत 'काआ' (१.१८०), 'माआ' ( १.१८०), ये दोनों शब्द पुल्लिंग नहीं हैं, शुद्ध स्त्रीलिंग हैं, तथा इस रूप में ये आज भी राजस्थानी ब्रज खड़ी बोली (काया, माया) में बोले जाते हैं। संस्कृत पु० 'काय' शब्द हिंदी में 'काया' (स्त्रीलिंग) हो गया है, सं० देह की तरह ही, तथा मध्यकालीन हिन्दी कविता में प्रयुक्त 'मया' (अर्थ, दया) शब्द भी स्त्रीलिंग ही है । अतः इन्हें अकारांत पुल्लिंग के उदाहरण रूप में देकर कथ्यब्रज तथा खड़ी बोली की सामान्य विशेषता के प्रमाण रूप में उपन्यस्त करना कहाँ तक ठीक है । उनके द्वारा उदाहृत 'बुड्डा' (२.१९५) पद ब० व० रूप है, इसे राज० ब्रज० 'बुड्डो' का ब० व० रूप अवश्य माना जा सकता है, किन्तु यह भी खड़ी बोली के आकारांत सबल ए० व० रूपों का संकेत तो नहीं कर सकेगा। वस्तुतः प्रा० पैं० में इधर उधर बिखरे ओकारांत आकारांत सबल रूपों को छाँटने में हमें निम्न बातों का ध्यान रखना होगा। (१) किसी ओकारांत रूप को हम राजस्थानी तथा तत्प्रभावित ब्रज का सबल रूप तभी मानेंगे, जब कथ्य राजस्थानी या ब्रज से उस शब्द के ओकारांत रूप का समानान्तर निदर्शन उपलब्ध हो । (२) किसी आकारांत रूप को हम आदर्श कथ्य ब्रज या खड़ी बोली का सबल रूप तभी मानेंगे, जब कथ्य ब्रज या खड़ी बोली से उसका सामानान्तर रूप सामने रख सकें । इस प्रकार यदि कोई राजस्थानी प्रभावित ब्रज के उदाहरण के रूप में प्रा० पै० से णाओ (११ नाग), कामो (१-६७ < कामः), मोरो (१.११३ - मयूरः ), पेश करना चाहे, तो यह वैचारिक अपरिपक्वता ही जान पड़ेगी । कहना न होगा कथ्य राजस्थानी - ब्रज में इनके रूप नाग, *काम, मोर ही पाये जाते हैं । वस्तुतः प्रा० पै० में शुद्ध कथ्य भाषा के सबल रूप बहुत कम मिलते हैं, फिर भी छुटपुट बीज जरूर देखे जा सकते हैं । (क) राजस्थानी प्रवृत्ति के सबल रूप : भमरो (१.११३ - भ्रमः: राज० भवरो, खड़ी बोली भौरा), जो (१.९ - यः रा० ज्यो, खडी बो० जो), सो सः, ब्र० सो), आओ (१.१८१, रा० आयो) उगो (२.५५ < उद्गतः, राज० उग्यो ) । (ख) खड़ी बोली के सबल रूप ए० व० : (१) दोहा (१.१६७), जड्डा (१.१९५, रा० जाड़ो, कथ्य खड़ी बोली जड्डा, कथ्य ब्रज जाड़ा) मथा (२.१७५ < मस्तकं, रा० माथो, कथ्य ख० बो० पंजाबी मत्था) पाआ (१.१३०, खड़ी बोली पाया), पावा (२.१०१, व श्रुतिवाला रूप), मेटावा (२.१०९ हि० मिटाया), ताका पिअला (२.९७ ८ तस्य प्रियः) में 'का' सम्बन्ध कारक चिह्न | (२) खड़ी बोली सबल तिर्यक् रूप ब० व० : करे (१.२०७, ए० ० करा (किया), भरे (१२०७ ए० व० भरा), चले (१.१९८, ए० व० चला), पले (१.१९८ -पड़े, ए० ० *पला पड़ा) कव्वके (१.१०८ क काव्यस्य) में 'के' (ए० व० 'का') संबन्ध कारक चिह्न मेच्छहके पुत्ते (१.९२ < म्लेच्छानां पुत्रैः) में के सम्बन्ध कारक चिह्न | १. डा० नामवरसिंह पृथ्वीराजरासो की भाषा पृ० ४९ : २. इसका संकेत (५१२) दिया गया है, जो गलत है । बिल्लोथिका संस्करण में कहीं पृ० ५१२ पर वुड्ढा शब्द नहीं है, वस्तुतः यह (५/२) है, जहाँ इस संस्करण में भी 'बुआ' पाठ ही है। दे० प्रा० पै० उक्त संस्करण पृष्ठ ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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