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________________ प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी ४१९ एम परि पलिअ दुरंत (१.१३५), भंजिअ मलअ चोलवइ णिवलिअ गंजिअ गुज्जरा ( १ . १५१), गिरिवर सिहर कंपिओ (१.१५५), फुलिअ महु (१.१६३), अवअरु वसंत (१.६३), कमठ पिट्ठ टरपरिअ (१.९२), चलिअ हम्मीर (२.९१), फुल्लिआ जीवा (१.१६६) । प्रा० पै० की भाषा में पूरबी न० भा० आ० के छुटपुट चिह्न ४५ प्रा० ० की भाषा की कतिपय नव्य वाक्यरचनात्मक विशेषताओं का संकेत यथावसर किया जायगा, इससे इसकी तद्विषयक प्रवृत्तियों पर प्रकाश पड़ेगा । प्रा० पै० में कुछ छुटपुट चिह्न पूरबी विभाषाओं के भी मिल जाते हैं; किंतु ये लक्षण प्रा० पै० की भाषा की खास विशेषता नहीं हैं । संक्षेप में ये निम्न हैं : - = (१) र ड का 'ल' में परिवर्तन धाला (१.१९८ - धारा), चमले (१.१०४ = धारा), चमले (१.१०४ = चमरे), तुलक (१.१५७ = तुरक, तुर्क), पलइ (१.१८९ = पड़ा), बहुलिआ (२.८३ बहुरिआ ) । प्रश्न हो सकता है, क्या यह परिवर्तन अवधी- मैथिली आदि की ही विशेषता है, क्योंकि ऐसे परिवर्तन पुरानी राजस्थानी में भी पाये जाते हैं ?" टेसिटोरी ने इस प्रवृत्ति का उदाहरण 'आलइ आरआई' दिया है। = (२) प्रा० पै० की भाषा में कुछ छुटपुट रूप ऐसे भी मिलते हैं, जिनके राजस्थानी खड़ी बोली में केवल सबल (ओकारांत - आकारांत रूप ही मिलते हैं, किंतु यहाँ निर्बल रूप भी हैं। क्या ये निर्बल रूप पूरबी प्रवृत्ति के द्योतक हैं ? 'लग णहि जल वड मरुथल जणजिअण हरा' (२.१९३) में 'वड' का पश्चिमी हिंदी - राजस्थानी वर्ग में केवल सबल रूप मिलता है :- खड़ी बो० बड़ा, राज० बड़ो । जब कि पूरबी विभाषाओं में इसका 'बड़' रूप मिलता है :'को बड़ छोट कहत अपराधू सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू ॥' (तुलसी मानस ) (३) पश्चिमी हिंदी में प्रायः भूतकालिक कृदंतों में ल-वाले रूप नहीं मिलते । प्रा० पैं० में कुछ रूप ऐसे मिले हैं :- मुअल जिवि उट्ठए (१.१६०) । १ ये रूप मैथिली तथा अन्य पूरबी भाषाओं में मिलते हैं। प्रश्न होता है, क्या ये रूप पूरबी प्रवृत्ति के ही द्योतक है ? यद्यपि ल वाले रूप पुरानी राजस्थानी में भी मिलते हैं:-सुणिल्ला, कीलु", फिर भी संभवतः प्रा० पै० के रूप पूरबी ही हों । १. दे० भाषाशास्त्रीय अनुशीलन का 'वाक्य रचना' विषयक प्रकरण २. Tessitori : O. W. R. $29 ३. ibid $ 126 (5) Jain Education International (४) भविष्यत्कालिक रूपों में 'ब' वाले भविष्यत्कालिक कर्मवाच्य कृदंत रूपों का प्रयोग पूरवी भाषा वर्ग की खास विशेषता है। प्रा० पै० में भी एक स्थल मिलता है : 'सहब कह सुणु सहि णिअल जहि कंत' (१.१६३) । जैसा कि हम बता चुके है, प्रा० पै० संग्रह-ग्रंथ है तथा इसमें एक ही कवि, काल या स्थान की रचनायें न होकर अनेकता पाई जाती है, अतः कुछ पूरबी भाषासंबंधी तत्त्वो की छौंक यत्र-तत्र कुछ पद्यों में मिल जाना असंभव नहीं। संभवतः उन पद्यों के रचयिता, जिनमें ये तत्त्व मिलते हैं, अवधी या मैथिली क्षेत्र के हो फिर भी कुल मिलाकर प्रा० पैं० के पद्यों के रचयिता, जिनमें ये तत्त्व मिलते हैं, अवधी या मैथिली क्षेत्र के हों। फिर भी कुल मिलाकर प्रा० पै० के पद्यों में प्रयुक्त भट्ट शैली की मूलाधार भाषा पुरानी पश्चिमी हिंदी की ही स्थिति का संकेत करती है। 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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