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प्राकृतपैंगलम् औक्तिक ग्रन्थों का संपादन कर रहे हैं, इनमें तत्कालिक कथ्य भाषा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ने की संभावना है। इसी कथ्य भाषा ने सूर आदि मध्ययुगीन कवियों की ब्रजभाषा के लिये नींव तैयार की है। प्रा० पैं० की काव्यभाषा तथा उस काल की औक्तिक ग्रन्थों की कथ्य भाषा और गद्यभाषा में ठीक वही भेद रहा होगा, जो ओत्तो येस्पर्सन ने पुरानी अंग्रेजी की काव्यभाषा तथा गद्यभाषा में संकेतित किया :
"आंग्ल भाषा में, काव्य-भाषा तथा गद्य-भाषा का अंतर निःसन्देह इस प्रारम्भिक काल में अन्य कालों की अपेक्षा कहीं बहुत अधिक है। काव्य-भाषा किसी हद तक समस्त इंगलैंड में एक सी प्रतीत होती है; जो एक प्रकार की कम या ज्यादा कृत्रिम विभाषा थी, जिसमें देश के विभिन्न भागों के व्याकरणिक रूपों तथा शब्दों का समावेश था; और यह ठीक उसी तरह की मिश्रित भाषा के रूप में पैदा हुई थी जैसी ग्रीस में होमर की भाषा उत्पन्न हुई थी।"
(अ) प्रा० पैं० के पद्यों में अधिकांश भाग इसी परवर्ती 'खिचड़ी' साहित्यिक भाषा-शैली में निबद्ध है, किन्तु इसमें परिनिष्ठित प्राकृत तथा अपभ्रंश के भी कुछ पद्य पाये जाते हैं । गाहासत्तसई, सेतुबंध, कर्पूरमंजरी के परिनिष्ठित प्राकृत पद्यों के अलावा भी कुछ पद्य ऐसे मिल जायेंगे, जिनकी भाषा परिनिष्ठित प्राकृत हैं । मात्रावृत्त प्रकरण के गाथा-वर्ग के छन्दों के उदाहरण इसी भाषा-शैली में निबद्ध हैं। पिंगल नाग की वंदना में निबद्ध पद्य (१.१) परिनिष्ठित प्राकृत में हैं। अन्य उदाहरण ये हैं :(१) परिहर माणिणि माणं पं(पे)क्खहि कुसुमाइँ णीवस्स ।
तुम्ह कए खरहिअओ गेण्हइ गुडिआधणुं अ किर कामो ॥ (१.६७) (२) सोऊण जस्स णामं अंसू णअणाइँ सुमुहि रुंधति ।।
भण वीर चेइवइणो पेक्खामि मुहं कहं जहिच्छं से ॥ (१.१६) (३) मुंचहि सुंदरि पाअं अप्पहि हसिऊण सुमुहि खग्गं मे ।
कप्पिअ मेच्छसरीरं पेच्छइ वअणाइँ तुम्ह धुअ हम्मीरो ॥ (१.७१) (४) वरिसइ कणअह विढेि तप्पइ भुअणे दिआणिसं जग्गंतो ।
णीसंक साहसंको णिदइ इंदं(इंदुं) अ सूरबिंबं अ॥ (१.७२) इन पद्यों की भाषा शुद्ध प्राकृत है। सुप् तिङ् चिह्न ही नहीं, कृदंत प्रत्यय भी प्रायः वैसे ही हैं। साथ ही यहाँ चौथे पद्य के 'कणअह' (कनकस्य) में सम्बन्ध कारक (षष्ठी विभक्ति) के '-ह' सुप् चिह्न के अलावा ऐसा कोई तत्त्व नहीं, जिसे अपभ्रंश की या परवर्ती भाषा-शैली की खास विशेषता बताया जा सके । ऐसा जान पड़ता है, 'गाथा-बंध' के छन्दों में भट्ट कवि प्रायः परिनिष्ठित प्राकृत का ही प्रयोग करते थे। कहना न होगा, ये चारों पद्य निःसन्देह प्राकृतकाल (१०० ई०-६०० ई०) की रचना न होकर उसी जमाने की रचना हैं, जिन दिनों प्रा० पैं० के पुरानी हिन्दी के पद्य भी लिखे जा रहे थे । गाथा-वर्ग के छन्दों में प्राकृत भाषा-शैली का प्रयोग करने की परिपाटी चन्द के पृथ्वीराजरासो ही नहीं, सूर्यमल्ल के 'वंशभास्कर' तक में पाई जाती है। छन्दोनुसार इस भाषा-भेद का संकेत करते हुए डा० विपिनबिहारी त्रिवेदी ने लिखा है :
"रासो के श्लोक छन्द संस्कृत में हैं तथा गाहा या गाथा छन्द प्राकृत, अपभ्रंश या अपभ्रंश मिश्रित हिन्दी में है।"२ चन्द के रासो के 'कनवज्ज-समय' से उद्धृत निम्न गाथा की भाषा-शैली इसका संकेत कर सकती है :
सय रिपु दिल्लियनाथो स एव आला अग्य धुंसनं । परणेवा पंगु पुत्री ए जुद्ध मंगति भूखनं ।। (२०१)२ . In English, certainly, the distance between poetical and prose language was much greater in this
first period than it has ever been since. The language of poetry seems to have been to a certain extent identical all over England, a kind of more or less artificial dialect, absorbing forms and words from the different parts of the country where poctry was composed at all, in much the same way as Homer's language had originated in greece.
-Jespersen : Growth and structure of English Language. p. 51 २. चंद बरदायी और उनका काव्य पृ० २८७ । ३. डा० नामवरसिंह : पृथ्वीराजरासो की भाषा (कनवज्ज समय) पृ० १९० से उद्धृत ।
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