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________________ प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी ४०७ उपर्युक्त 'नाग भाखा' का जिक्र भिखारीदास के काव्यनिर्णय में भी मिलता है। ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहै सुमति सब कोई । मिलै संस्कृत पारसिहं पै अति प्रकट जु होइ ॥ ब्रज मागधी मिलै अमर नाग जवन भाखानि । सहज फारसीहू मिलै षट् विधि कहत बखानि ॥ (काव्यनिर्णय १-१४-१५) स्पष्ट है, 'पिंगल' ब्रजभाषा की ही एक कृत्रिम साहित्यिक शैली थी, जिसमें कई अवांतर तत्त्व भी मिश्रित थे, ठीक उसी तरह जैसे 'डिंगल' पश्चिमी राजस्थानी की कृत्रिम साहित्यिक शैली है। साहित्यिक भाषाशैली के लिये 'पिंगल' शब्द का प्रयोग बहुत पुराना नहीं है । इसी तरह 'डिंगल' शब्द का प्रयोग भी उनीसवीं सदी के उत्तरार्ध से पुराना नहीं जान पड़ता । राजस्थान के चारणों की कृत्रिम साहित्यिक शैली को चारण लोग 'डींगळ' कहते हैं। कविराज बाँकीदास की 'कुकविबत्तीसी' (१८७१ वि० सं०) में इसका सर्वप्रथम प्रयोग देखा जाता है। डींगलियाँ मिलियाँ करै, पिंगल तणौ प्रकास । संस्कृती कै कपट सज, पिंगल पढियाँ पास ॥ बाँकीदास के बाद उनके भाई या भतीजे ने अपने 'दुआवेत' में इसका संकेत किया है। सब ग्रंथू समेत गीता कू पिछाणै । डींगल का तो क्या संस्कृत भी जाणै । (१५५) और भी सादुओं में चैन अरु पीथ । डींगल मैं खूब गजब जस का गीत ॥ (१५६) और भी आसीयूँ मैं कवि बंक । डींगल पींगल संस्कृत फारसी मैं निसंक ॥ (१५७)२ 'डिंगल शब्द के साथ साथ 'पिंगल' का भी प्रयोग इन दोनों स्थलों में पाया जाता है। 'डिंगल' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में अनेकानेक मत प्रचलित हैं। इन मतों के विवेचन में जाना यहाँ अनावश्यक होगा । डा० मोतीलाल मेनारिया का कहना है कि वास्तविक शब्द 'डिंगल' न होकर 'डींगळ' है, जो डींग' शब्द के साथ 'ळ' प्रत्यय जोड़ने से बना है, जिसका अर्थ है वह साहित्यिक शैली जो डींग-से युक्त अर्थात् अतिरंजना-पूर्ण हो । 'डींगळ' शब्द का प्रयोग अनगढ़, अव्यवस्थित के अर्थ में भी पाया जाता है । "पिंगल' शब्द का वास्तविक अर्थ 'छन्दःशास्त्र' है; किंतु औपचारिक रूप में यह कृत्रिम साहित्यिक भाषा-शैली के लिये चल पड़ा, यह हम देख चुके हैं । 'पिंगल' शब्द का प्रयोग 'ब्रजभाषा' के लिये समझा जाने लगा था, किंतु यह ठीक वही ब्रजभाषा नहीं है, जो सूर या अन्य कृष्णभक्त कवियों के काव्यों तथा भक्तिकालीन एवं रीतिकालीन अन्य रचनाओं में पाई जाती है। अतः ब्रजभाषा से इसे भिन्न बताने के लिये इसका अर्थ 'राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा' किया जाने लगा। 'पिंगल' तथा 'डिंगल' का भेद बताते हुए डा० मेनारिया लिखते हैं : "पिंगल में राजस्थानी की कुछ विशेषतायें देखकर बहुत से लोग पिंगल को भी डिंगल कह देते हैं । परंतु इन दोनों में बहुत अंतर है । पिंगल एक मिश्रित भाषा है। इसमें ब्रजभाषा और राजस्थानी दोनों की विशेषतायें पाई जाती हैं। इसके विपरीत डिंगल में केवल मारवाड़ी व्याकरण का अनुकरण किया जाता है ।"४ प्रा० पैं० की भाषा पुरानी ब्रज की मिश्रित साहित्यिक शैली है : ३४. प्रा० पैं० की भाषा पुरानी व्रजभाषा होने पर भी राजस्थानी तथा खड़ी बोली के तत्त्वों से भी मिश्रित है। इतना ही नहीं, इसमें कुछ नगण्य तत्त्व पूरबी भाषावर्ग-अवधी तथा मैथिली-के भी मिल जाते हैं। फिर भी ब्रजभाषा के अतिरिक्त अधिक अंश इस भाषा में राजस्थानी तत्त्वों का है। कुछ लोगों ने शौरसेनी अपभ्रंश तथा सूर आदि भक्तिकालीन कवियों की परिनिष्ठित व्रजभाषा के बीच की भाषास्थिति को दो सीढ़ियों में बाँट कर इन्हें क्रमशः अवहट्ठ तथा पिंगल कहा है । अवहट्ठ का काल वे मोटे तौर पर ग्यारहवीं और बारहवीं सदी मानते हैं, पिंगल का तेरहवीं सदी के बाद से माना गया है । दरअसल इस काल की कृत्रिम साहित्यिक शैली में ऐसी कोई भेदक-रेखा नहीं खींची जा सकती, जो अवहट्ठ तथा पिंगल का स्पष्ट भेद उपस्थित कर सके । यह निश्चित है कि यह भाषा बोलचाल की, आम जनता की कथ्य भाषा से दूर थी और कथ्य भाषा-रूप का पता हमें औक्तिक ग्रन्थों की भाषा से लगता है। मुनि जिनविजय जी कुछ १. डा० मेनारियाः राजस्थानी भाषा और साहित्य पृ० २०-२१ २. दे० वही पृ० २८-२९ ३. दे० वही पृ० २८-२९ ४. डा० मेनारिया : राजस्थानी भाषा और साहित्य पृ० १०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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