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प्राकृतपैंगलम्
के रूप में इसका प्रयोग मजे से किया जा सकता है और इस तरह प्राकृत से नव्य भारतीय आर्य भाषाओं (हिंदी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि) के रूप परिवर्तन को जानने के लिये इसका अनुपेक्षणीय महत्त्व है। डा० याकोबी भी अपभ्रंश को केवल काव्यभाषा ही घोषित करते हैं ।
दूसरा मत पिशेल, ग्रियर्सन, भण्डारकर, चाटुर्ज्या आदि भाषाशास्त्रियों का है। ये अपभ्रंश को वास्तविक देश्यभाषा मानते हैं। इन लोगों का यह मत है कि तत्तत् प्राकृत तथा तत्तत् नव्य भाषाओं के बीच की भाषाशास्त्रीय कड़ी यही अपभ्रंश है। हर प्राकृत को आज की नव्य भारतीय आर्य भाषा बनने के पहले अपभ्रंश की स्थिति से गुजरना पड़ा होगा । पिशेल ने इसीलिये शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप शौरसेनी अपभ्रंश (जिससे गुजराती, मारवाड़ी, हिंदी का विकास हुआ है), महाराष्ट्री प्राकृत के परवर्ती रूप महाराष्ट्री अपभ्रंश (जिससे मराठी का विकास हुआ है) तथा मागधी प्राकृत के परवर्ती रूप मागध- अपभ्रंश (जिससे बिहार, असम, उड़ीसा तथा बंगाल की भाषाओं का विकास हुआ है) की कल्पना की है।" पिशेलने 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग दो अथों में माना है :- मुख्यतः यह भारतीय आर्य देशी भाषाओं के लिये प्रयुक्त होता है, गौण रूप से प्राकृत भाषाओं की ही उस विशिष्ट काव्यशैली के लिये भी जो देश्य विभाषाओं के मिश्रण से निर्मित हुई थी। इस दृष्टि से पिशेल का मत विशेष वैज्ञानिक जान पड़ता है क्योंकि 'अपभ्रंश' का यह दुहरा अर्थ लिये बगैर हम भाषाशास्त्रीय अन्वेषण दिशा में भ्रांत मार्ग का आश्रय ले लेंगे। जब हम स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल या हेमचन्द्र की अपभ्रंश कृतियों का संकेत करते हुए उनकी अपभ्रंश भाषा का जिक्र करते हैं, तो यह कभी न भूलना होगा कि ऐसी भाषा कथ्य रूप में कहीं भी कभी भी प्रचलित नहीं रही है। उनमें प्रयुक्त भाषाशैली केवल काव्य तथा साहित्य की शैली रही है और वह स्वयंभू से लेकर रइधू तक, गुजरात से लेकर मान्यखेट तक ही नहीं, बल्कि नालन्दा तक एकसी ही रही है। भले ही अपभ्रंश की रचनायें पूरब से मिले कण्ह और सरह के चर्यापद हों, विदर्भ से मिले पुराण काव्य हों, या गुजरात और राजस्थान से मिले जोइंदु और रामसिंह के दोहे या हेमचन्द्र के द्वारा उद्धत दोहे हों, उनकी भाषा में कतिपय वैभाषिक छुटपुट नगण्य तत्त्वों के अलावा ऐसी खास विशेषतायें नहीं कि उन्हें वैज्ञानिक दृष्टि से पूरबी, दक्षिणी तथा पश्चिमी अपभ्रंश के खानों में रखा जा सके। डा० पंडित ने ठीक ही कहा है
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"चौथी भूमिका के प्राकृत — अंतिम प्राकृत - को हम अपभ्रंश कहते हैं। यह साहित्यिक स्वरूप हमारी नव्य भारतीय आर्य भाषाओं का पुरोगामी साहित्य है। यह केवल साहित्यिक स्वरूप है, बोली भेद अत्यंत न्यून प्रमाण में दृष्टिगोचर होते हैं। अधिकांश, पूर्व से पश्चिम तक एक ही शैली में लिखा गया यह केवल काव्य साहित्य है ।"
डा० गजानन वासुदेव टगारे ने अपभ्रंश की तीन विभाषायें मान ली है५
(१) पश्चिमी अपभ्रंशः- कालिदास, जोइंदु रामसिंह, धनपाल, हरिभद्र, हेमचंद्र, सोमप्रभसूरि आदि की अपभ्रंश । (२) दक्षिणी अपभ्रंशःपुष्पदंत तथा कनकामर की अपभ्रंश ।
(३) पूर्वी अपभ्रंशः कण्ह तथा सरह के चर्यापदों की अपभ्रंश किंतु जैसा कि मैं अन्यत्र संकेत कर चुका हूँ, इन सभी की काव्यशैली एक-सी है।
इतना होते हुए भी इसमें कोई संदेह नहीं कि उस काल की कथ्य भाषा में वैभाषिक प्रवृत्तियाँ अधिक रही होंगी। "...... that Ap. is a poetic speech, which has been formed from the literary Pkt, through the borrowing of inflexions, pronouns, adverbs etc., so also a limited portion of the existing vocables from the popular speech. " - Jacobi : Introduction to Bhavisattakaha § ( 12 (Eng. Trans.) २. Pischel : Prakrit Sprachen $ 5 (Eng. Trans.)
3. Consequently it is the common name for all the Indian popular Dialects, and only remotely does it signify particular form of the Prakrit dialects that were remodelled from the popular dialects to the status of literary language according the usual practice that obtained in Prakrit. --Ibid § 28. ४. डा० प्र० बे० पंडित: प्राकृत भाषा पृ० ३७
१.
५. Tagare: Historical Grammar of Apabhramsa, pp. 16, 18, 20.
६. दे० भोलाशंकर व्यास : हि० सा० बृ० इति० पृ० ३१७- १९
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