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प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी डा० टी० एन० दवे ने अपने एक महत्त्वपूर्ण निबंध में शौरसेनी प्राकृत की कथ्य अपभ्रंशों की परिकल्पना करते हुए चार अपभ्रंशों का संकेत किया है :
(१) नागर अपभ्रंश-पश्चिमी हिंदी विभाषायें, (२) उपनागर अपभ्रंश-पंजाबी, (३) आवन्त्य अथवा गुर्जर अपभ्रंश-(१) राजस्थानी, (२) गुजराती, (३) भीली तथा खानदेशी, (४) हिमाचल अपभ्रंश-(१) पश्चिमी पार्वत्य विभाषायें, (२) केंद्रीय पार्वत्य विभाषायें, (३) नेपाली तथा भूटानी।
कहना न होगा, जिस तरह हेमचन्द्र की अपभ्रंश पश्चिमी अपभ्रंश के परिनिष्ठित तथा साहित्यिक शैली का निदर्शन उपस्थित करती है, वैसे ही प्राकृतपैंगलम् की भाषा उस साहित्यिक शैली का संकेत करती है, जिसका आधार डा० दवे की परवर्ती नागर अपभ्रंश या पुरानी पश्चिमी हिंदी है। आप चाहें तो इसे पुरानी ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। किंतु यह कभी न भूलना होगा कि यह भाषा-शैली केवल काव्यों की है, जो संभवतः ११ वीं सदी से लेकर १४ वीं सदी तक (विद्यापति के समय तक) हिंदी की आदिकालीन कृतियों में सर्वत्र समस्त मध्यदेश के परिनिष्ठित सामंती कवियों के द्वारा प्रयुक्त होती रहती है। इस भाषा में बोलचाल की भाषा के कई तत्त्व घुले-मिले जरूर मिलेंगे, लेकिन इसे ज्यों की त्यों बोल चाल की भाषा मान लेना खतरे से खाली नहीं । संक्रांतिकालीन भाषा और परवर्ती अपभ्रंश :
२७ डा० याकोबी ने 'सनत्कुमारचरित' की भूमिका में दो प्रकार की अपभ्रंशों का जिक्र किया है :-उत्तरी अपभ्रंश (नार्दर्न अपभ्रंश) तथा गुर्जर या श्वेतांबर अपभ्रंश । हरिभद्रसूरि के 'सनत्कुमारचरित' की अपभ्रंश को उन्होंने गुर्जर अपभ्रंश घोषित किया है तथा इसका एक रूप हमें हेमचन्द्रोत्तर कालीन अद्दहमाण के खण्डकाव्य 'संदेशरासक' में भी मिलता है। गुर्जर अपभ्रंश में परिनिष्ठित अपभ्रंश की विशेषताओं-(१) म् > व् (y), (२) आज्ञा प्रकार के इ, हि, उ तथा अ वाले रूप, (३) पूर्वकालिक क्रिया रूपों में इवि, अवि, एवि, एविणु, इ, अप्पि वाले रूप, तथा (४) भविष्यत् में स् एवं ह वाले दोनों रूपों का अस्तित्व के अतिरिक्त निम्न निजी विशेषतायें भी पाई जाती है :
(१) पुल्लिंग अकारांत शब्दों के कर्ता रूपों में प्रातिपदिक या निविभक्तिक रूपों का प्रयोग, (२) पुल्लिंग अकारांत शब्दों के करण ए० व० में इ तथा हि विभक्ति चिह्न वाले रूप, (३) संबंध कारक के रूपों में पुलिंग में अह, अहा, इहि, उहु जैसे सावर्ण्यजनित विभक्तिचिह्नों का अस्तित्व, (४) जिणि, तिणि, इणि जैसे सर्वनाम रूप, (५) वर्तमान प्रथम पुरुष ब० व० में अइ तिङ् विभक्ति चिह्न ।।
इतना ही नहीं, संदेशरासक में कुछ ऐसी भी विशेषतायें संकेतित की गई हैं, जो पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में या पुरानी ब्रज में मिल जाती है। ठीक इसी तरह सनत्कुमारचरित में भी याकोबी ने 'किरि', 'पिक्खि', 'जोडि' जैसे पूर्वकालिक रूपों का संकेत किया है, जो उत्तरी अपभ्रंश का प्रभाव माना गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि हेमचन्द्र के बाद तथाकथित परिनिष्ठित काव्यों में भी अनेक वैभाषिक प्रवृत्तियाँ मिल जाती हैं। यदि ११ वीं सदी से १४ वीं सदी तक की जैन काव्य कृतियों को ध्यान से देखा जाय तो पता चलेगा कि समस्त कृतियों को साहित्यिक शैली के लिहाज से दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। जैसा कि मैंने अन्यत्र संकेत किया है :
"इस काल में दो प्रकार की जैन काव्य कृतियाँ पाई जाती हैं कुछ ऐसी हैं जो परिनिष्ठित अपभ्रंश में लिखी गई हैं, और अन्य ऐसी जिनमें यद्यपि अपभ्रंशाभास पाया जाता है तथापि कवि ने देशभाषा की काव्य शैली अपनाई है। इस काल में लिखे गये पुराणों एवं चरितकाव्यों की शैली प्रायः शुद्ध परिनिष्ठित अपभ्रंश है; किंतु चर्चरी, रास तथा फागु काव्यों की भाषा में इस परिनिष्ठितता की पाबंदी नहीं पाई जाती । इसका कारण यह जान पड़ता है कि जैन मंदिरों या १. Dr. T. N. Dave : Principles to be followed in determining affinities of the Borderland dialects.
(Gujarat Research Society Journal, July 1950) २. Jacobi : Introduction to Sanatkumaracaritam $3 (Eng. trans.) ३. Bhayani : Sandesarasaka (Study) 877 p. 47
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