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प्राकृतपैंगलम् हम्मीर संबंधी पद्यों को शुक्लजी ने 'हम्मीर रासो' से उद्धृत कहा था, जिसे वे शार्ङ्गधर की रचना कहते हैं । किन्तु जैसा कि हम देख चुके हैं, शाङ्गधर को पुरानी हिन्दी के प्रा० पैं० वाले कवियों की कोटि में गिनना ठीक नहीं जान पड़ता। राहुल जी ने इन्हें 'जज्जल' कवि की रचना माना है। इधर नयचन्द्र सूरि के 'हम्मीरविजय' महाकाव्य से यह पता चलता है कि जज्जल कोई कवि न होकर हम्मीर का सेनापति था । यदि ऐसा है तो "हम्मीर कज्जु जज्जल भणइ" वाला पद्य किसी अन्य की रचना है तथा यह पद्य 'कवि-निबद्ध-वक्त-उक्ति' सिद्ध होता है । इस प्रकार हिन्दी के पुराने कवियों में 'जज्जल' की गणना संदिग्ध ही जान पड़ती है।
कलचुरि कर्ण (१०४०-७० ई०) के दरबार में रहने वाले बब्बर कवि दूसरे विवादास्पद विषय है। प्रश्न होता है, क्या बब्बर सचमुच किसी कवि का नाम है, या यह केवल सम्बोधन या विशेषण भर है। प्रा० पैं० में केवल दो पद्य ऐसे मिलते हैं, जिनमें 'बब्बर' (या वव्वर) शब्द मिलता है। 'को कर बब्बर सग्ग मणा' (२.९५) तथा 'कुणंति के बब्बर सग्ग णेहा' (२.११७) में ही यह शब्द है। अन्यत्र कहीं इस कवि की छाप नहीं मिलती । इसीलिये राहुल जी ने खुद भी लिख दिया था-"जिन कविताओं में बब्बर का नाम नहीं, वह बब्बर की हैं, इसमें सन्देह है, मगर कर्णकालीन जरूर हैं ।"३ जिन कविताओं में कर्ण की वीरता वर्णित है, उनके विषय में तो हमें कुछ नहीं कहना लेकिन शेष कविताओं को कर्ण-कालीन किस आधार पर माना गया, यह अस्पष्ट है। बब्बर वाली समस्या फिर भी नहीं सुलझ पाती और तब तक के लिए हिन्दी पण्डितों द्वारा मान्य इस अनुमान को ही मान लेना श्रेयस्कर है कि बब्बर नाम का कोई कवि रहा होगा।
प्रा० ५० के शेष दो ज्ञात कवि विद्याधर तथा हरिब्रह्म हैं। विद्याधर को राहुल जी ने डा० अल्तेकर के आधार पर गहडवाल राजा जयचन्द्र का मन्त्री माना है। काशीश की कीर्ति तथा वीरगाथा से संबद्ध सभी पद्यों को राहुल जी ने विद्याधर की रचना माना है; वैसे केवल एक पद्य में ही 'विद्याधर' की छाप उपलब्ध है।
'कासीसर राआ (राणा) किअउ पआणा विज्जाहर भण मंतिवरे' (१.१४९) विद्याधर के द्वारा वर्णित काशीराज के दिग्विजय को इतिहास से मिलाकर कुझ लोग विद्याधर को जयचन्द्र का समसामयिक न मानकर गोविंदचन्द्र या विजयचन्द्र का मंत्री मानना चाहें तो इतना ही कहा जा सकता है कि विद्याधर के ये वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, जिनमें काशीश के द्वारा चीन, तैलंग, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र तक के विजय की चर्चा है, जो इतिहास से संभवत: गोविंदचन्द्र के विषय में भी मेल नहीं खायगा । अतः डा० अल्तेकर की साक्षी पर विद्याधर का समय ११७०-११९४ ई० के लगभग मानना ही ठीक होगा। विद्याधर बड़े कुशल राजनीतिज्ञ, प्रबंधक तथा अनेक विद्याओं एवं कलाओं में पारंगत थे । मेरुतुंगाचार्य ने उनका वर्णन करते हुए लिखा है :
'सर्वाधिकारभारधुरंधर: चतुर्दशविद्याधरो विद्याधरः ।।
हरिहर या हरिब्रह्म के विषय में हम अपना अभिमत अनुशीलन के भूमिका-भाग में व्यक्त कर चुके हैं । एक हरिहर का उल्लेख हमें विद्यापति की कीर्तिलता के तृतीय पल्लव में मिलता है।
'हरिहर धम्मावी( धि)कारी
जिसु पण तिण लोइ पुरसत्थ चारी ॥' पता चलता है कि ये कीर्तिसिंह के धर्माधिकारी थे । क्या ये हरिहर हमारे प्रा० पैं. के हरिब्रह्म से अभिन्न है, जिनके चंडेश्वर संबंधी पद्य मिलते हैं ? वैसे यह असंभव नहीं है कि हरिहर या हरिब्रह्म इस समय (१४०२ ई०) तक जीवित रहे हों, किंतु यह स्पष्ट है कि इस समय वे लगभग ७०-८० वर्ष के वृद्ध रहे होंगे। ये हरिहर, राजा गणेश्वर तथा कीर्तिसिंह के राजकवि तथा साथ ही धर्माधिकारी भी रहे होंगे।
प्रा० पैं० में अनेक पद्य ऐसे हैं, जिन्हें राहुल जी ने फुटकर खाते में डाला है। इन पद्यों के रचयिताओं का कोई १. आचार्य शुक्लः हि० सा० इ० पृ० ५२ । २. हिन्दी काव्यधारा पृ० ४५२ । ३. वही पृ० ३१४-३१५ । ४. प्रबंधचिंतामणि पृ० ११३-१४ । (सिंघी जैन ग्रंथमाला १) ।
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