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हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान
३८९ अनुमान नहीं हो सका है। राहुल जी ने इन अज्ञात कवियों का निवास स्थान 'युक्त प्रान्त या बिहार' माना है तथा इन्हें 'दर्बारी भक्त' कवि घोषित किया है। ये फुटकर पद्य सामन्ती समाज का चित्रण, युद्धों का वर्णन, देवी, शंकर, कृष्ण, राम तथा दशावतार की स्तुति से संबद्ध हैं । यद्यपि प्रा० पैं० के अधिकांश उदाहरणों के रचयिता अज्ञात है, किंतु हिंदी काव्यपरम्परा की वे एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं, जिसकी अवहेलना नहीं की जा सकती । पुरानी हिन्दी मुक्तक कविता-आधार और परम्परा :
१६. हिन्दी साहित्य संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की समस्त काव्य-परम्परा के दाय को आत्मसात् कर हमारे समक्ष आता है । इसकी प्रकृति तथा प्रगति का सम्यक् पर्यालोचन करने के लिये हमें उक्त तीनों साहित्यिक परंपराओं का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। वस्तुतः किसी देश की सामाजिक चेतना की भांति साहित्यिक चेतना भी एक अखण्ड प्रवाह है, तथा यह प्रवाह बाहर से आनेवाले स्रोतों को भी अपने में खपा कर एकरूपता दे देता है, और उसकी अन्विति में आरम्भ से अन्त तक कहीं विशृंखलता उपस्थित नहीं होती। पुरानी हिंदी के मुक्तक कवियों को संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश मुक्तक काव्यों (पद्यों) से, सबसे अधिक संस्कृत मुक्तकों से, प्रेरणा मिली है। मैं यहाँ केवल परिनिष्ठित साहित्य की बात कर रहा हूँ, लोक गीतों से प्रभावित 'ढोला मारू रा दोहा' जैसे मुक्तकों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ। वैसे कहना न होगा कि वहाँ पर भी यत्रतत्र परिनिष्ठित काव्यपरम्परा का छिटपुट प्रभाव देखा जा सकता है । 'मुक्तक' काव्य से हमारा तात्पर्य उन स्वतन्त्र, अपने आप में पूर्ण पद्यों से हैं, जो रस चर्वणा के लिये किसी अन्य पद्य की अपेक्षा न रखते हों।२ यद्यपि मुक्तकों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जा सकता है, किन्तु प्रस्तुत विषय की दृष्टि से हम केवल चार वर्गों में मुक्तकों को बांटना ठीक समझते हैं :-(१) नीतिपरक मुक्तक, (२) स्तोत्र मुक्तक, (३) राजप्रशस्ति मुक्तक, (४) शृंगारी मुक्तक । संस्कृत से ही इन चारों प्रकार के मुक्तकों की परम्परा चली आ रही है तथा प्रा० पैं० के मुक्तकों में भी इन चारों कोटियों की रचनायें उपलब्ध हैं। हमें यहाँ इन्हीं परम्पराओं का संकेत करते हुए प्रा० पैं० के मुक्तकों का योगदान देखना है।
१७ (१) नीतिपरक मुक्तक:-संस्कृत में नीतिपरक मुक्तकों का विशाल साहित्य है। इस कोटि के मुक्तकों में एक ओर अन्योक्तिमय मुक्तक, दूसरी ओर नीतिमय उपदेश, तथा तीसरी ओर वैराग्यसम्बन्धी शांतपरक मुक्तकों का समावेश किया जाता है। इन सभी कोटि के मुक्तकों में कवि प्रधानतः उपदेशक का बाना पहन कर आता है, अतः वह काव्यसौन्दर्य की उदात्तभूमि का स्पर्श नहीं कर पाता । केवल अन्योक्तिमय मुक्तकों में काव्यसौन्दर्य अक्षुण्ण बना रहता है, क्योंकि उपदेश व्यंग्य रहता है, वाच्य नहीं। अन्यत्र कवि का 'डाइडेक्टिक' स्वर अधिक मुखर हो उठता है। संस्कृत में भल्लट की अन्योक्तियाँ मशहूर हैं, जहाँ हाथी भौंरा, चातक आदि को प्रतीक बना कर मानव जीवन के कई चित्र अङ्कित कर उन पर सटीक निर्णय दिया गया है। नीतिसम्बन्धी तथा शान्तरसपरक मुक्तकों में भर्तृहरि के पद्यों का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। इन पद्यों में चन्द रेखाओं में ही भर्तृहरि ने मानव जीवन के एक एक पहलू को अंकित कर दिया है, जिनमें कहीं सज्जनों की सज्जनता, परोपकारियों की उदारता, पण्डितों की मेधा के भव्य चित्र हैं, तो कही दुष्टों की भुजंगता, मानियों का मान, मूर्यों की जड़ता के अभव्य पहलू भी हैं। नीतिपरक उपदेशों की परम्परा इससे भी कहीं पुरानी है, तथा इस सम्बन्ध में महाभारत और चाणक्यनीति का संकेत किया जा सकता है। शान्तरसपरक मुक्तकों में संसार की क्षणभंगुरता और असारता, मन की चंचलता, इंद्रियों की भोगलिप्सा पर मार्मिक टिप्पणी कर विषयपराङ्मुखता, हरिचरण सेवन, मोक्षसाधन आदि पर जोर दिया जाता है ।
प्राकृत काल में भगवान् बुद्ध के वचनों में हमें धार्मिक तथा नीतिमय उपदेशों वाली मुक्तक परम्परा मिलती है
जैन निज्जुत्तियों एवं 'समयसार' जैसी रचनाओं में भी इस तरह के पद्य मिलते हैं। इतना ही नहीं, गाथासप्तशती तथा वज्जालग्ग जैसे प्राकृत मुक्तक-संग्रहों में भी कई नीतिपरक मुक्तक मिलते हैं। गाथासप्तशती में संकलित कुछ नीतिपरक
१. हिंदी काव्यधारा पृ० ४५६ । २. मुक्तमन्येन नालिंगितं मुक्तकम् । तस्य संज्ञायां कन् । पूर्वापरनिरपेक्षेणापि हि येन रसचर्वणा क्रियते तदेव मुक्तकम् ॥
-अभिनवगुप्त : लोचन पृ० ३२३ (काशी संस्कृत सिरीज, १३५) ३. दे० हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास (प्रथम भाग) (ना० प्र० सभा) में मेरे अंश 'साहित्यिक आधार तथा परम्परा, खण्ड का
'द्वितीय अध्याय' पृ० ३०८ ।
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