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हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान
३८७ जाती हैं । प्रा० पैं० में उपलब्ध मुक्तक पद्यों से यह अनुमान और अधिक पुष्ट होता है। कुछ लोगों का अनुमान हो सकता है कि कर्ण, काशीराज तथा हम्मीर से संबद्ध पद्य तत्तत् राजा से संबद्ध महाकाव्यों से उद्धृत हों, किन्तु मुझे ऐसा मानने का कोई प्रमाण नहीं दिखाई पड़ता । हो सकता है, प्राकृतपैंगलम् के संग्राहक के पास अपने अनेक पूर्वजों, निकटतम या सुदूर संबन्धियों या अन्य देशी भाषा के भट्ट कवियों के पद्य संकलित हों और उनमें बब्बर, विद्याधर आदि के भी पद्य हों, जिनमें से कुछ यहाँ उद्धृत किये गये हैं। हमारा अनुमान है कि आज के राजस्थान के चारणों तथा भाटों की भाँति प्रा० पैं० के संग्राहक के पास पुरानी हिन्दी के मुक्तक पद्यों का विशाल संकलन रहा होगा ।
इन राजाश्रित भट्ट कवियों ने जो कुछ भी लिखा वह राजाओं की रुचि का ध्यान रखकर लिखा था । यही कारण है कि इनमें केवल सामंती वर्ग के रहन-सहन, आशा-निराशा, रूढि-विश्वास, एवं सामाजिक मान्यताओं का आलेखन होना लाजमी है। वस्तुत: हिन्दी के आदिकाल का साहित्यिक इतिहास इन्हीं राजाओं तथा सामन्तों के वैयक्तिक काव्याश्रय का इतिहास है । साधारण जनता की, कृषकों निम्न वर्ग के लोगों की स्थिति का परिचय अगर यहां न मिले तो बिदकने की जरूरत नहीं । वैसे कुछ लोगों ने 'आदिकाल' की सामान्य सामाजिक परिस्थिति का अध्ययन करने के लिये नाथसिद्धों के पदों को महार्घ मान लिया है, किंतु वे भी उसका सच्चा चित्र कहाँ तक अंकित करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता। बहरहाल हमें इतना ही कहना है कि हिंदी आदिकाल के भट्ट कवि यूरोप के आंग्ल एवं फ्रेंच 'ट्र बेदूर' कवियों की तरह केवल आश्रित राजाओं के ही लिये लिख रहे थे । इस संबंध में हम डा० शूकिंग के इस मत को उद्धृत करना आवश्यक समझते हैं, जो उन्होंने मध्ययुगीन आंग्ल कवियों के विषय में व्यक्त किया है, किंतु जो हमारे हिंदी भट्ट कवियों पर भी पूरी तरह लागू होता है :
"गायक सदा राजा के साथ साथ रहता था, इसलिये नहीं कि वे दोनों 'मानवता के शीर्ष' थे, बल्की इसलिये कि गायक के लिये राजा ही एक मात्र आश्रय था । किंतु इसका यह अर्थ था कि आश्रित व्यक्ति को सदा आश्रय मिलता रहे तथा वह अपना कृतज्ञता-प्रकाशन का कर्तव्य कभी न भूले । इस आश्रय-दान के कारण ट्यूटन राज-गायक, जो एंग्लो-सेक्सन में 'स्कोप' कहलाते थे, आश्रयदाता राजाओं तथा उनके पूर्वजों के महान् कार्यों पर रचना करते थे तथा उत्सवादि के समय कविता सुनाया करते थे ।"१
हिंदी का प्राचीन परिनिष्ठित साहित्य भी प्रधानतः आश्रयदाता या अन्नदाता के सामान्य दृष्टिकोण को ध्यान में रख कर लिखा गया है। मध्ययुगीन साहित्य की प्रगति एवं विकास में राजा या धर्म के आश्रय का काफी हाथ रहा हैं । आदिकालीन जैन कृतियों के प्रणयन में-रास, फागु, चर्चरी काव्यों की रचना में-धर्म का खास हाथ है; तथा भक्तिकालीन हिंदी साहित्य के विकास में भी धर्म का अपूर्व योग है। कृष्णभक्तिशाखा तथा रामभक्तिशाखा का ही साहित्य नहीं, निर्गुण ज्ञानाश्रयी संतों की कविताओं तथा सूफीसंतों के प्रेमगाथा काव्यों के प्रणयन में भी तत्तत् धार्मिक मान्यता ही प्रेरक तत्त्व है। कबीर, जायसी, सूर या तुलसी ने किसी अन्नदाता के लिये नहीं लिखा और कुंभनदास ने तो अकबर के निमंत्रण को बड़े गर्व से ठुकरा दिया था । भक्तिकाल ने नि:संदेह काव्य को अन्नदाता राजाओं के अहसान से मुक्त किया तथा उसे जनता की सच्ची आवाज बनाया । लेकिन आदिकाल के राजाश्रित कवियों की परम्परा भी इसके समानांतर चलती ही रही, जिसने भक्तिकाल के दिनों में ही नरहरि, गंग जैसे कवियों को जन्म दिया, तथा यही परम्परा रीतिकाल में भूषण, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर की शृंगारी तथा राजस्तुतिपरक कविता के रूप में चलती रही है। रीतिकाल के इन कवियों में भी भट्ट कवियों से यह समानता पाई जाती है कि इन्होंने "जगत् को सामंती वर्ग के चश्मे से ही देखा, तथा इनकी रचनाओं में कहीं भी निम्न वर्ग के क्षुद्र मानव की भावना तथा शारीरिक श्रम की महत्ता का संकेत नहीं मिलता ।" प्राकृतपैंगलम् में उद्धृत पुरानी हिन्दी के कवि :
१५. जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं, गाथासप्तशती, सेतुबंध तथा कर्पूरमञ्जरी के प्राकृत पद्यों के अलावा प्रा० पैं० में अधिकांश पद्य परवर्ती अपभ्रंश शैली या पुरानी हिंदी में लिखे मिलते हैं। प्राकृतपैंगलम् के इन पद्यों में से
१. L. L. Schucking : The Sociology of Literary Taste ch. II. p. 9
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