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प्राकृतगलम् (६) रासो मूलतः दुःखांत काव्य न होकर सुखांत काव्य था । द्विवेदी जी संयोगिताहरण के बाद की प्रेमलीला के साथ काव्य की सुखमय परिसमाप्ति मानते हैं। साथ ही वे इसका अंगी रस वीर न मानकर शृंगार मानते जान पडते हैं तथा वीर रस को अंगभूत मानते हैं।'
डा० द्विवेदी की कल्पनायें नि:संदेह मनोरंजक हैं, किंतु वे कहाँ तक मान्य हो सकेंगी इसमें संदेह है। हमें तो
। प्रामाणिकता पर विचार करना था । इस संबंध में द्विवेदी जी कोई दिङ्-निर्देश नहीं कर पाये हैं । रासो की प्रकृति के विषय में उनकी प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ स्थापना से किसी को मतभेद न होगा । किंतु पंचम एवं षष्ठ स्थापना से बहुतों का मतभेद होने की गुंजायश है । पंचम स्थापना में वे रासो की प्रामाणिकता पर बहुत चलते ढंग से विचार प्रकट कर जाते हैं, किंतु केवल यह कह देना कि इसमें कवित्व का सहज प्रवाह होना, बेडौल और बेमेल लूंसठांस न होना इसे प्रामाणिक सिद्ध कर सकता है; कोई ठोस भाषाशास्त्रीय प्रमाण नहीं माना जा सकता । स्पष्ट है, द्विवेदी जी मुनि जिनविजय जी के ही प्रमाण को स्वीकार करते हैं।
इधर मुनिजी के प्रमाण को भी संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है। कुछ ऐसे तथ्यों का पता चला है, जो 'पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह' की पृथ्वीराज वाली कथा को भी संदिग्ध बना देते हैं । 'पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह' की इस कथा में पृथ्वीराज की मृत्यु सं० १२२६ में होना बताया गया है। संपादित ग्रंथ में यही तिथि छपी है। इसके ठीक विपरीत जिस हस्तलेख के आधार पर यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ है, उसमें पृथ्वीराज का मृत्यु संवत् स्पष्ट १४४६ लिखा है । 'पुरातनप्रबंध-संग्रह' की भूमिका में मुनि जी ने इस हस्तलेख की फोटो कापी प्रकाशित की है, जिसके पत्र सं० १२ । २. पर यह अंश यों है :
"तथैव मारितः संवत १४४६ वर्षे दिवं यथौ योगिनीपुरं परावृत्य सुरत्राणस्तत्र स्थितः । इति पृथ्वीराजप्रबन्धः ॥"
इस प्रकार हस्तलेख तथा ग्रन्थ का पाठ-भेद प्रूफ की गलती है, या संपादक ने इसे स्वेच्छा से बदल दिया है। हमें तो ऐसा जान पड़ता है कि संपादक ने सं० १४४६ तिथी को पृथ्वीराज की ऐतिहासिकता से मेल खाती न पाकर इसे जानबूझकर १२२६ सं० बना कर छाप दिया है, यह समझ कर कि फोटो कापी से मूल को कौन मिलाने वाला है। इस तिथि से कम से कम यह तो सिद्ध हो ही जायगा कि 'पुरातन-प्रबंध-संग्रह' भी गपोड़ों पर आधृत है तथा उसकी घटनाओं और तिथियों को भी शंका की दृष्टि से देखा जा सकता है। इतना होने पर उसमें उपलब्ध तीन या चार छप्पयों को लेकर रासो को प्रामाणिक सिद्ध करने की चेष्टा भी खतरे से खाली नहीं ।
पृथ्वीराजरासो किसी भी हालत में हिन्दी के आदिकाल या वीरगाथा काल की कृति तब तक नहीं माना जा सकता जब तक कि ठोस प्रमाणों और तथ्यों को न पेश किया जाय । वस्तुतः इसका मूलरूप मध्ययुगीन हिन्दू राष्ट्रीय चेतना की देन जान पड़ता है। इसीलिये कुछ लोग इसे मेवाड़ में रचित अकबर की समसामयिक रचना मानते हैं । पृथ्वीराजरासो की अप्रामाणिकता के विषय में एक तर्क और पेश किया जा सकता है, जो इसकी अप्रामाणिकता को सिद्ध करने में परोक्ष साक्ष्य का काम दे सकता है। प्रा० पैं० में पृथ्वीराज के ही समसामयिक कवि विद्याधर की रचनायें उद्धृत हैं। इतना ही नहीं, बाद में भी हम्मीर तथा चण्डेश्वर से संबद्ध पद्य यहां उदाहरण रूप में लिये गये हैं। यदि पृथ्वीराजरासो के दरबार में चंद नामक कोई महाकवि था और उसने 'पृथ्वीराजरासो' जैसे महाकाव्य की रचना की थी, तो हम्मीर के समय तक उसकी ख्याति अवश्य हो गई होगी। ऐसी दशा में प्रा० पैं० का संग्राहक इस महान् काव्य से एक भी पद्य न उद्धृत करे, यह समझ में नहीं आता ।
पृथ्वीराजरासो की अप्रामाणिकता के बावजूद इसका भाषाशास्त्रीय अध्ययन हो चुका है, जिससे भी कुछ ऐसी ही ध्वनि निकलती है कि रचना को इतना पुराना नहीं माना जा सकता । रासो के लघु रूपान्तर के 'कनवज्ज समय' का,-जिसे रासो का मूल केन्द्र माना जाता है-भाषाशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करते समय डा० नामवरसिंह ने इसकी भाषा के सम्बन्ध में कहीं भी काल-निर्देश न करने की सतर्कता बरती है। उन्होंने स्पष्टतः कहीं भी इसे १३वीं या १४वीं शती की भाषा नहीं कहा है। वे इसे नरहरि तथा गंग की भाषा-परम्परा में ही रखते, इसे अकबरकालीन मानने का मौन संकेत करते हैं।
१. वही पृ० ८८-८९
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