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हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान
३८५ "नरहरि और गंग अकबर के समकालीन थे और संभवतः उनके दरबारी कवि भी थे। इस प्रकार ये कवि १६वीं सदी के उत्तरार्ध में थे। पृथ्वीराजराजो के अन्तिम संग्रह और संकलन का समय भी लगभग यही बताया जा सकता है
और उसकी प्राचीनतम प्रतियाँ भी इसी के आसपास की हैं। ऐसी हालत में तत्कालीन 'भट्ट-भणंत' के रूप में भी पृथ्वीराजरासो की भाषा नरहरि तथा गंग की भाषा-परंपरा में आती है।"
विवाद का विषय केवल इतना है कि सोलहवीं सदी में रासो का अन्तिम संग्रह और संकलन हुआ था या मूल रचना; और जब तक प्रथम विकल्प के ठोस प्रमाण न मिलें, द्वितीय विकल्प की ही ओर झुकाव होना लाजमी है । रासो को वीरगाथा-काल की रचना मानने में अभी भी संदेह है और जब तक यह संदेश नहीं दूर हो जाता, उस पर अधिक महत्त्व देना हिन्दी साहित्य के वैज्ञानिक इतिहास के लिये अवांछनीय है।
१२. अब तक के समस्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि विद्यापति से पूर्व की प्रायः समस्त आदिकालीन हिंदी रचनायें संदिग्ध हैं। ऐसी स्थिति में प्रा० पैं० में उद्धृत मुक्तक पद्यों का महत्त्व इसलिये भी बढ़ जाता है कि ये विद्यापति की कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका से पूर्व की पुरानी पश्चिमी हिंदी या शौरसेनी अवहट्ट की एकमात्र प्रामाणिक रचनायें हैं, जिनका हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक परम्परा से घनिष्ठ संबंध है। इस संबंध में मैं इतना कह दूं कि शुक्ल जी के इतिहास में अनिर्दिष्ट 'इधर' मिले जैन रास, फागु तथा चर्चरी काव्यों की प्रामाणिकता सिद्ध अवश्य है, किन्तु उनकी परम्परा हमें मध्यकालीन हिंदी साहित्य में नहीं मिलती और वे साक्षात् रूप से मध्यकालीन गुजराती साहित्य की परम्परा से संबद्ध हैं । मैं 'आदिकाल' में उनका नाम-निर्देश करने का विरोध नहीं करता, क्योंकि तब तक राजस्थानी, गुजराती तथा हिंदी जैसी पृथक् पृथक् साहित्यिक परम्परायें नहीं बन पाई थीं। किंतु बाद में, मध्ययुगीन साहित्य में जो परम्परा बनी, उसे देखते हुए इनमें से प्रा० पैं० के मुक्तकों की परम्परा ही हिंदी के मध्ययुगीन साहित्य की परंपरा के विशेष नजदीक दिखाई पड़ती है, जैन रास, फागु, चर्चरी काव्यों की परंपरा नहीं। यही कारण है कि हम इन जैन काव्यों पर विशेष विचार करना यहाँ अनावश्यक समझते हैं । जहाँ तक 'हिंदी साहित्य के इतिहास' में प्रा० पै० के महत्त्व का प्रश्न है, डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में हम यही कह सकते हैं -
"यदि प्राकृत-पिंगलम् के एक कवि के ग्रंथ को वीरगाथा काल का ग्रंथ समझा जाय तो उसी ग्रंथ में से बब्बर, विद्याधर और अन्य अज्ञात कविओं की रचनाओं को भी उस काल की रचना मानकर विवेच्य क्यों न समझा जाय । .... हमारे कहने का मतलब यह है कि या तो हम्मीररासो को 'नोटिस' मात्र समझा जाय या प्राकृत-पिंगलम् में उद्धृत सभी रचनाओं को इस अनुमानाधारित ग्रंथ के समान ही इस काल की प्रकृति और संज्ञा के निर्णय का उपयुक्त साधन समझा जाय ।"२
कहना न होगा, नरहरि, गंग, केशव, भूषण, पद्माकर, सूदन जैसे कवियों के राजस्तुतिपरक पद्यों तथा काव्यों, बिहारी, मतिराम, देव, पद्माकर आदि कवियों की शृंगारी मुक्तक रचनाओं, रहीम, वृंद आदि की नीतिपरक सूक्तियों, तथा भक्त कवियों की देव-स्तुतिपरक रचनाओं की परंपरा की पुरानी कड़ी हमें प्रा० पैं० में स्पष्ट परिलक्षित होती है, जो उसके ऐतिहासिक तथा साहित्यिक महत्त्व को प्रतिष्ठापित करने में अलम् है। ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिपार्श्व :
१३. हिंदी साहित्य का आदिकाल मध्यदेश की उस राजनीतिक परिस्थिति का परिचय देता है, जो भारत के इतिहास में 'राजपूत काल' के नाम से प्रसिद्ध है। हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उत्तरी भारत में अनेक छोटे छोटे राज्य उठते और गिरते नजर आते हैं । संभवतः इनमें से अनेक हर्षवर्धन के करद राज्य थे, किंतु उसके प्रतापसूर्य को अस्त होता देख कर उसके चिह्न पुलकेशी द्वितीय से प्राप्त पराजय से स्पष्ट हो चुके थे-वे हर्ष के आधिपत्य से मुक्त होने का प्रयत्न उसके जीवन-काल में ही करने लग गये हों । बाण तथा हर्ष के परवर्ती संस्कृत साहित्य में इस राजनीतिक स्थिति के स्पष्ट लक्षण मिलते हैं। ईसा की आठवीं नवीं शती के आसपास गुजरात में वलभी, राजस्थान में मौर्यो की राजवानी चित्रकूट (चित्तौड), प्रतीहारों की राजधानी कन्नौज, तथा दक्षिण में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट विशेष प्रसिद्ध
१. डा० नामवरसिंह: पृथ्वीराजरासो की भाषा पृ० ५४ ।
२. हिन्दी साहित्य का आदिकाल पृ० १६ । Jain Education International
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