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हिन्दी साहित्य में प्राकृतपैंगलम् का स्थान
३८३ रासो को जाली ग्रंथ घोषित किया है। ओझा जी के अनुसार रासो में वर्णित नाम, घटनाएं तथा संवत् भाटों की कल्पनाएँ (गपोड़ें) हैं। उन्होंने काश्मीरी कवि जयानक रचित 'पृथ्वीराजविजय' काव्य तथा तत्कालीन शिलालेखों के आधार पर रासो की अप्रामाणिकता सिद्ध की है। उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों की छानबीन करने पर यह घोषणा की थी कि "कुछ सुनी सुनाई बातों के आधार पर उक्त बृहत् काव्य की रचना की गई है। यदि पृथ्वीराजरासो पृथ्वीराज के समय लिखा जाता तो इतनी बड़ी अशुद्धियों को होना असंभव था । भाषा की दृष्टि से भी यह ग्रंथ प्राचीन नहीं प्रतीत होता । इसकी डिंगल भाषा में जो कहीं कहीं प्राचीनता का आभास होता है, वह तो डिंगल की विशेषता ही है। .... वस्तुत: पृथ्वीराजरासो वि० सं० १६०० के आसपास लिखा गया है।"
तीसरा मत वह है, जो रासो के कतिपय अंश को प्रामाणिक मानना चाहता है। यद्यपि इस मत के मानने वाले विद्वानों में भी परस्पर भाषा संबंधी मतभेद पाया जाता है, तथापि इसके मूलरूप की वास्तविकता पर कोई भी विद्वान् अंतिम रूप से कुछ नहीं कह सका है। मुनि जिनविजयजी ने 'पुनरातनप्रबंधसंग्रह' में चंद के नाम से उपलब्ध ४ छप्पय ढूंढ निकाले हैं, जिनमें से ३ वर्तमान रासो में मिलते हैं । 'पुरातन-प्रबंध-संग्रह' में मिले इन छंदों की भाषा अपभ्रंश है तथा परिनिष्ठित अपभ्रंश के कुछ आगे की भाषा स्थिति का संकेत देती है। इसके आधार पर मुनिजीने रासो को अपभ्रंश की रचना माना है। अन्य विद्वान् भी मुनिजी के ही आधार पर रासो की भाषा को डिंगल अथवा पिंगल न मानकर परवर्ती पश्चिमी अपभ्रंश कहते हैं ।
इधर डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मुनिजी के ही सूत्र का भाष्य करते हुए रासो की प्रामाणिकता पर फिर से जोर दिया है। उन्होंने अपने "हिंदी साहित्य का आदिकाल' के तृतीय और चतुर्थ व्याख्यान में रासो पर विस्तार से विचार किया है तथा रासो की इतिहास-विरुद्धता के मसले को सुलझाने के लिये भारतीय चरित काव्यपरंपरा का पर्यालोचन करते हुए बताया है कि "रासो चरितकाव्य है, इतिहासग्रंथ नहीं, अतः सभी ऐतिहासिक कहे जाने वाले काव्यों के समान इसमें भी इतिहास तथा कल्पना का, तथ्य तथा गल्प का मिश्रण है। सभी ऐतिहासिक मानी जाने वाली रचनाओं के समान, इसमें भी काव्यगत और कथानकप्रथित रूढियों का सहारा लिया गया है ।'२ इतना ही नहीं, डा० द्विवेदी ने रासो-समुद्र का मंथन कर उसके मूल रूप की भी खबर ले ली है और उसके वास्तविक कलेवर के विषय में कुछ अनुमान भी उपस्थित किये हैं। अपने अनुमानों के आधार पर उन्होंने रासो का एक संक्षिप्त संस्करण भी संपादित किया है, जिसे वे मूल रासो के स्वरूप का आभास देता मानते हैं ।
डा० द्विवेदी के रासो-संबंधी अनुमानों का सारांश निम्न है :(१) 'पृथ्वीराजरासो' गेय 'रासक' शैली में निबद्ध था । (२) इसमें इतिहास और कल्पना का मिश्रण है।
(३) रासो भी कीर्तिलता की भाँति संवाद रूप में निबद्ध रहा होगा, यह संवाद कवि और कविप्रिया तथा शुकशुकी में कल्पित किया गया है। साथ ही हो सकता है कि कीर्तिलता की तरह रासो में भी बीच-बीच में वार्तापरक गद्य रहा हो।
(४) रासो में कई कथानक रूढियों का व्यवहार हुआ है । द्विवेदी जी ने २०-२१ कथानकरूढियों की तालिका भी दी है।
(५) मूल रासो के प्रामाणिक अंशों में निम्नलिखित अंश माने जा सकते हैं-(१) आरंभिक अंश, (२) इंछिनी विवाह, (३) शशिव्रता का गंधर्व विवाह, (४) तोमर पाहार द्वारा शहाबुद्दीन का पकड़ा जाना, (५) संयोगिता का जन्म, विवाह तथा इंछिनी और संयोगिता की प्रतिद्वंद्विता और समझौता । द्विवेदी जी का कहना है कि इन अंशों की भाषा तथा शैली बतायी है कि यहाँ कवित्व का सहज प्रवाह है, तथा बेडौल और बेमेल ठूसठाँस नहीं है।' १. पुरातनप्रबंधसंग्रह पद्य सं० २७५, २७६, २७७ २. हिंदी साहित्य का आदिकाल पृ० ८६ ।। ३. डा० द्विवेदी द्वारा संपादित संक्षिप्त 'पृथ्वीराजरासो' (काशिका समिति, काशी, १९५३)
४. हि० सा० आ० पृ० ४९-८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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