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________________ भूमिका ३७७ वाला E हस्तलेख है । यह हमारा A हस्तलेख है । इसका पाठ जहाँ तक उपलब्ध है, हमने हस्तलेख से दिया है, त्रुटित अंशों का पाठांतर कलकत्ता संस्करण के E हस्तलेख वाले पाठों से लिया है। C. हस्तलेख :-प्रस्तुत हस्तलेख का माप १०३.४ ४३" है, तथा पत्र संख्या ४३ है । इस हस्तलेख के पत्र किनारों पर त्रुटित है। प्रस्तुत हस्तलेख काली स्याही में स्पष्ट देवनागरी अक्षरों में लिखा गया है। पुस्तक किसी जयकृष्ण चतुर्वेदी की है । पुस्तक के प्रारंभिक ऐवं अंतिम पृष्ठ पर 'जयकृष्ण चतुर्वेदि पिंगलपुस्तकमिदं' लिखा हुआ है। प्रारंभिक तथा अंतिम पृष्ठ पर क्रमशः वर्णमेरु तथा मात्रामेरु के रेखाचित्र है। इस हस्तलेख में प्रत्येक पृष्ठ पर लगभग ९ पंक्तियां तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३० अक्षर हैं । प्रस्तुत हस्तलेख, जैन उपाश्रय रामघाट के ज्ञानभंडार नामक पुस्तकालय में है, तथा वहाँ का नंबर १६ । ४४ है। आरम्भ : ॥ श्री गणेशायनमः ॥ जो विविहमत्तसाअरपारं पत्तो वि विमलमइहेलं ॥ पढमं मास तरण्डो णाओ सो पिंगलो जअइ० ॥१॥ अन्त : ता० ॥ इति वर्णवृत्तं संपूर्ण ॥ समाप्तोयं ग्रंथः ।। संवत् १६५८ समये कार्तिक शुदि १२ बुद्धवासरे ।। शुभमस्तु । श्रीरस्तु॥ इस हस्तलेख पर किसी अन्य व्यक्ति के हाथ की टिप्पणियां भी लिखी हैं, जो दोनों ओर के हाशिये में तथा मूल पाठ के ऊपर एवं नीचे हैं । D. हस्तलेख :-माप ९२ x ४२, पत्र संख्या ११. प्रथम तथा अंतिम पत्र केवल एक और लिखे हैं । हस्तलेख के दोनों ओर तीन तीन लाल स्याही की रेखाओं से हाशिया छोड़ा गया है। हस्तलेख अपूर्ण है तथा मात्रावृत्त के अधूरे ९३ वें छंद तक उपलब्ध है। इसके प्रत्येक पृष्ठ में लगभग ६ पंक्तियाँ तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३५ अक्षर है । मूल पाठ की प्रत्येक पंक्ति के बीच में तथा ऊपर एवं नीचे छोटे अक्षरों में संस्कृत टिप्पणी है। यह हस्तलेख अत्यधिक सुंदर, स्पष्ट एवं स्थूल अक्षरों में है। लिपिकार कोई जैन जान पड़ते हैं। यह हस्तलेख भी उक्त पुस्तकालय का ही है। आरम्भ :श्रीगुरुभ्यो नमः श्रीअनंतायनमः ॥ जो विविह मत्तसायरपारं पत्तो वि विमलमइहेलं ॥ अन्त : कुंदकरअलमेहतालंक कलरुद्रकोइलकमल इंद संभु चामर गणेसुर सहसक्ख सेसह भण णाअराअ जंपई फणिसुर तेरह अक्खर जंप लइ गुरु सत्तिर लहु देहु अ .... ॥ 0 हस्तलेख :-माप १३" x ६;", पत्र संख्या ४५ । इनमें प्रथम तथा अंतिम पत्र केवल एक ओर लिखे हैं । ग्रन्थ तथा टीका पत्र ४३ के एक ओर ही समाप्त हो जाते हैं। पत्र ४३ की दूसरी ओर अष्टमात्रिक, नवमात्रिक, तथा दशमात्रिक पताका के रेखाचित्र हैं। पत्र ४४ पर एक ओर 'प्राकृतपैंगलम्' के छन्दों की अनुक्रमणिका है, दूसरी ओर वर्णमर्कटी तथा मात्रामर्कटी की गणनप्रक्रिया तथा रेखाचित्र हैं। पत्र ४५ के एक ओर मात्रामेरु तथा वर्णमेरु के रेखाचित्र हैं। इस प्रकार मूल ग्रन्थ तथा टीका भाग ४३ पत्रों तक ही सीमित हैं। प्रत्येक पत्र में मूल बीच में है तथा टीका भाग उसके ऊपर नीचे छोटे अक्षरों में लिखा गया है । मूल एवं टीका भाग दोनों को मिलाकर १४ से १६ पंक्ति तक प्रति पृष्ठ में पाई जाती हैं तथा मूल भाग में ४५ से ४६ तक एवं टीका भाग में ५० से ५६ तक अक्षर हैं। यह हस्तलेख सम्पूर्ण है, केवल ४३ वाँ पत्र कुछ स्थानों पर त्रुटित है। यह हस्तलेख बड़ौदा विश्वविद्यालय के गायकवाड ऑरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के पुस्तकालय से हमें प्राप्त हुआ है तथा वहाँ इसका नंबर १२५८७ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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