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प्राकृतपैंगलम्
साथ ही मार्कंडेय पूर्वी प्राकृत वैयाकरण थे और उनके द्वारा पिंगल के उद्धृत करने से पिंगल भी पूर्वी कवि हो गये; यह तो बड़ा हलका तर्क है। पिंगल में उपलब्ध पारिभाषिक संज्ञाओ का संकेत 'मागध' छंद: परंपरा के नाम से किया गया है; ठीक है, किंतु 'मागध' शब्द का वास्तविक अर्थ मुझे 'मगध देश के छंदः शास्त्री' (Prosodists of Magadha) - जो प्रो० याकोबी लेते हैं-ठीक नहीं जँचता । मैं इस शब्द का साधारण अर्थ "भाट, बंदी, चारण, राजकवि" करना चाहता हूँ, और इस तरह हेमचन्द्र का तात्पर्य 'भाटों की छंद: परंपरा' (bardic tradition of Metrics) से है, जो मगध देश से संबद्ध न होकर गुजरात, राजस्थान तथा मध्यदेश में प्रचलित थी। कहना न होगा, 'मागध' शब्द का इस रूढ अर्थ में प्रयोग साहित्य में सर्वत्र पाया जाता है ।"
प्राकृतपैंगलम् की उपलब्ध टीकायें
$ ८. प्राकृतपैंगलम् की विशेष प्रसिद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि इस ग्रन्थ पर आधे दर्जन से अधिक टीकायें उपलब्ध हैं ।
हमें इसकी छह टीकाओं का स्पष्ट पता चलता है, तथा इनमें से पांच प्रकाशित भी हो चुकी हैं। ये टीकायें क्रमशः रविकर, लक्ष्मीनाथ भट्ट, विश्वनाथ पञ्चानन, वंशीधर, दशावधान भट्टाचार्य की रचनायें तथा कृष्णीयविवरण हैं ।
(१) रविकरकृत पिंगलसारविकाशिनी - रविकर का उल्लेख हम पिछले प्रघट्टक में कर चुके हैं। ये रविकर निश्चित रूप से दीर्घघोष कुल के ब्राह्मण थे । 'पिंगलसारविकाशिनी' के अंत में इनका परिचय यों दिया गया है ।
आसीच्छ्रीशूलपाणिर्भुवि विविधगुणग्रामविश्रामभूमिस्तत्पुत्रो भूमिदेवाम्बुजवनतरणिर्मिश्ररत्नाकरोऽभूत् । तस्मादासीमभूमीवलयसुविदितानन्तकीर्तिप्रतानः पुत्रः, साक्षात्पुरारिर्गुणगणसहितो दोहविः पण्डितोऽभूत् ॥ चण्डेशस्तस्य पुत्रोऽभवदतिमहितो मिश्रभीमेश्वरोऽभूत्तत्सूनुः सूरिसंसद्गणितगुणगणः सुप्रतिष्ठोऽतिनिष्ठः । जातस्तस्मात्पवित्रो हरिहरसुकविः साधु साधारणं यद्वित्तं नित्योपकाराहितमतिरुचितः श्रीरविस्तत्सुतोऽस्ति ॥
ये रविकर स्पष्टतः वही है, जिनका उल्लेख दामोदर ने किया है। उपलब्ध टीकाओं में इनकी टीका प्राचीनतम जान पड़ती है। वैसे रविकर उपनाम श्रीपति ने इस बात का जिक्र किया है कि इनकी टीका के पूर्व भी 'प्राकृतपिंगल' पर एक अन्य टीका भी मौजूद थी। संभवत: वह रविकर के पिता हरिहर ही की रचना हो, जो हमारे मतानुसार 'प्राकृतपैंगलम्' के संवर्धित रूप के लिए भी जिम्मेदार हैं। रविकर की टीका वस्तुतः टिप्पण है; इसके पूर्व रचित अनुपलब्ध टीका भी संभवतः टिप्पण ही रही हो । इस टिप्पण से यह सिद्ध होता है कि यह रचना उस काल की है, जब अवहट्ठ रचनायें मजे से समझी जाती थी, क्योंकि अवहट्ठ उदाहरण भागों में टीकाकार न तो संस्कृत छाया ही देता है, न व्याख्या, ही करता है । वह केवल पद्य का प्रतीक देकर " इति सुकरं" कह कर आगे बढ़ जाता है । वस्तुतः चौदहवीं शती में अवहट्ठ मजे से समझी जाती थी; वह उतनी कठिन न हो पाई थी, जितनी सतरहवीं शती के कवियों के लिये। तब तक वह जीवित काव्यशैली थी । यह प्रमाण रविकर की टीका की प्राचीनता को पुष्ट करने में अलम् है । प्राचीनतम उपलब्ध टीका होने के कारण हम इस संस्करण में इस टीका को प्रकाशित कर रहे हैं। जो सर्वप्रथम यहीं प्रकाशित हो रही है। (२) लक्ष्मीनाथभट्टकृत पिंगलार्थप्रदीपः - लक्ष्मीनाथभट्ट 'प्राकृतपैंगलम्' के दूसरे प्रसिद्ध टीकाकार है। यह टीका संवत् १६५७ (१६०० ई०) की भाद्रशुक्ल एकादशी चन्द्रवार को समाप्त थी ।
अब्दे भास्करवाजिपाण्डवरसक्ष्मा (१६५७) मण्डलोद्भासिते, भाद्रे मासि सिते दले हरिदिने वारे तमिस्त्रापतेः । श्रीमत्पिंगलनागनिर्मितवरग्रन्थप्रदीपं मुदा
लोकानां निखिलार्थसाधकमिमं लक्ष्मीपतिर्निर्ममे ॥
टीका के प्रस्तावना भाग में लक्ष्मीनाथ ने अपना वंशपरिचय दिया है, किंतु ये कहाँ के थे, यह संकेत नहीं मिलता ।
१. दे० - श्रुतिसमधिकमुच्चैः पञ्चमं पीडयन्तः, सततमृषभहीनं भिन्नकीकृत्य षड्जम् ।
प्रणिजगदुरकाकु श्रावक स्निग्धकण्ठाः परिणतिमिति रात्रेर्मागधा माधवाय ॥ - माघ, ११-१ २. टीकाऽस्ति पिंगलग्रंथे यद्यप्यन्या पुरातनी । विशेषं तदपि ज्ञात्वा धीराः पश्यत मत्कृतिम् ।
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