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भूमिका का सम्पादन करते समय उसकी भूमिका में 'प्राकृतपैंगलम्' के रचयिता (या संग्राहक) के विषय में कुछ अनुमान उपस्थित किये हैं। 'प्राकृतपैंगलम्' के संग्राहक 'पिंगल' को वे पूर्वी अपभ्रंश भाषा तथा पूर्वी छन्द: परंपरा का प्रतिनिधि कवि घोषित करते हैं। इस प्रकार उनके मत से 'प्राकृतपैंगलम्' में पूर्वी प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। इस विषय पर हम विस्तार से 'प्राकृतपैगलम्' की भाषा तथा छन्द: परंपरा के संबंध में विचार करेंगे। यहाँ इस ग्रन्थ के संग्राहक के विषय में याकोबी के संकेतों को संक्षेप में उद्धृत कर रहे हैं ।
(१) प्राकृत व्याकरण में दो सम्प्रदाय प्रचलित है, पूर्वी सम्प्रदाय के प्रवर्तक वररुचि के सूत्र है; पश्चिमी सम्प्रदाय के प्रवर्तक वाल्मीकि के प्राकृतसूत्र । प्रथम सम्प्रदाय के मत लंकेश्वर (रावण), क्रमदीश्वर, रामशर्मन् तथा मार्कंडेय में पाये जाते हैं। पश्चिमी वैयाकरण सम्प्रदाय की मान्यतायें हेमचन्द्र के प्राकृतव्याकरण' में उपलब्ध हैं। पूर्वी वैयाकरणों में शेषनाग भी प्रसिद्ध हैं, जिनके 'प्राकृत-व्याकरणसूत्र' पर लंकेश्वर ने 'प्राकृतलंकेश्वर' नामक वृत्ति लिखी थी। इस संबंध में याकोबी ने इस तथ्य की ओर भी संकेत किया है कि अपभ्रंश छंदों का प्रस्तुत ग्रंथ भी शेषकवि या शेषनाग की ही रचना माना गया है, जो उनके मत से स्पष्टतः पूर्वी अपभ्रंश काव्यपरंपरा का वाहक है।"
(२) पूर्वी अपभ्रंश काव्यपरम्परा के निदर्शन भाषाशास्त्रीय दृष्टि से सरह तथा कण्ह के पद्यों में उपलब्ध हैं, तथा यही भाषापरम्परा प्राकृतपैंगलम् के 'अवहट्ट' में मिलती है, तथा पिंगल पूर्वी परंपरा का ही कवि था। पश्चिमी अपभ्रंश में कर्ता कर्म ए० व० में नियमत: उ ( या ओ) सुप् प्रत्यय पाया जाता है; किंतु पूर्वी अपभ्रंश में शुद्ध प्रतिपदिक रूप या 'जीरो - फार्म' अधिक चल पड़े हैं। प्राकृतपैंगलम् की 'अवहट्ट' में यह बात पाई जाती है।
(३) हेमचन्द्र के 'छन्दोनुशासन' में संकेतित छन्दः परम्परा 'प्राकृतपैगलम्' की छन्दः परम्परा से भिन्न है। हेमचन्द्र ने बताया है कि 'मागध कवि कर्पूर तथा कुंकुम नामक द्विपदियों को 'उल्लाल' कहते हैं। पिंगल ने इसी संज्ञा का संकेत किया है। इसी तरह ६ + ३४४+६ वाले मात्रिक छंद को हेमचन्द्र ने 'वस्तुवदनक' कहा है, जब कि हेमचन्द्र के अनुसार दूसरे लोग इसे 'वस्तुक' कहते हैं। पिंगल ने इसे 'काव्य' (कव्व) तथा 'वस्तुक' (वत्थुअ) कहा है और इसकी उट्टवनिका ६+४+ * | * * * +४+६ मानी है। इसी तरह काव्य (रोला) तथा उल्लाल के मिश्र छंद को पिंगल ने 'छप्पय' (षट्पद) कहा है। हेमचन्द्र ने इसे 'द्विभंगिका' कहा है तथा यह संज्ञा वे उन समस्त संकीर्ण छंदों के लिये देते हैं, जिनमें दो छंद मिश्रित हों । हेमचन्द्र ने बताया है कि 'मागध' कवि इसे षट्पद अथवा 'सार्धच्छन्दस्' कहते है ।
'जइ वत्थुआण हेट्टे उल्लाला छंदयम्मि किज्जंति ।
दिवढच्छंदयछप्पय कब्बाई ताई बुच्वंति ॥
पिंगल की ये पारिभाषिक संज्ञाये 'मागध' परंपरा की है. अतः वह मगध देश की काव्यपरंपरा का वाहक है तथा स्वयं भी मगध या उसके आसपास का निवासी है।"
(४) केवल मार्कंडेय ने ही 'प्राकृतपैंगलम्' से उद्धरण दिये हैं। मार्कंडेय ने पिंगल को अपभ्रंश का महान् लेखक माना है। मार्कंडेय स्वयं पूर्वी वैयाकरण सम्प्रदाय से संबद्ध थे, अतः पिंगल भी पूर्वी अपभ्रंश के ही कवि या लेखक थे । प्रो० याकोबी के ये सभी अनुमान ठोस नहीं जान पड़ते। जैसा कि हम संकेत करेंगे 'प्राकृतपैगलम्' की अवहट्ट, पूर्वी अपभ्रंश की उत्तराधिकारिणी न होकर वस्तुतः मध्यदेशीय ( या पाश्चात्य) अपभ्रंश शौरसेनी अपभ्रंश का विकसित रूप है। प्रातिपदिक रूपों का कर्ता कर्म ए० ब० में प्रयोग तो हेमचन्द्र तक ने नागर अपभ्रंश में संकेतित किया है, तथा जैन चरितकाव्यों और रास-फागु काव्यों की पश्चिमी अपभ्रंश से अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। अतः इसको शेषनाग की रचना माने जाने से ही शेषनाग के पूर्वी प्राकृत- सूत्रों से संबद्ध कर पूर्वी साहित्यिक परंपरा से जोड़ना ठीक नहीं है। 2. Jacobi: Introduction to Sanatkumarcaritam. § 4; footnote, 35 (Eng. trans.) J.O.I. (Baroda Univ.) vol. VI no. 2-3. p. 92-93
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2. It also points to the fact that Ap. Literature of the East has developed quite independent of that of the West. Magadha was the centre of the Gauda kingdom, which was the stronghold of East India. It may be asserted from the above that Pingala remained as an Ap. writer of the East. Of course, he did not write in pure Ap. but in a degraded idiom of the same, which is called Avahatta or Avahattha Bhasha. ibid. p. 95
३. ibid, p. 97
8. ibid. p. 95-94.
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4. ibid. p. 94 For Private & Personal Use Only
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