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प्राकृतपैंगलम् "अथ च ग्रन्थकर्ता हरिहरबन्दी न चलति न भ्रान्तो भवतीत्यर्थः ।"१
यह संकेत इस बात की अवश्य पुष्टि करता है कि प्राकृतपैंगलम् के उपलब्ध रूप में हरिहर (संभवत: हरिहर ब्रह्म) का हाथ अवश्य है।
प्रो० याकोबी ने भविसत्तकहा की भूमिका के छन्दःप्रकरण में प्राकृतपैंगलम् को 'सुमति' नामक व्यक्ति की रचना माना है। उन्होंने यह भी संकेत किया है कि श्रीटोडरमल्ल को यह सूचना श्रीपति की टीका से मिली थी। श्रीपति की टीका ठीक वही है जो रविकर की 'पिंगलसारविकाशिनी' है। श्रीपति रविकर का ही उपनाम था। ऑफ़ेक्ट के 'केटेलोगस केटलोगोरम में श्रीपति के नाम दो ग्रन्थ मिलते हैं :-(१) प्राकृतपिंगलटीका, तथा (२) वृत्तरत्नावली । ठीक यही दोनों ग्रन्थ रविकर के नाम से भी मिलते हैं। रविकर तथा श्रीपति एक ही हैं, तथा रविकर की टीका श्रीपति के नाम से भी चल पड़ी है। श्रीटोडरमल्ल ने वस्तुतः रविकर की टीका ही देखी थी, जो श्रीपति के नाम से भी प्रसिद्ध है । रविकर की टीका में एक ऐसा स्थल है जिससे 'सुमति' वाली भ्रांति का सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है। यह स्थल निम्न है -
"इमां छन्दोविद्यां सहृदयहृदयः प्राह गिरिशः । फणींद्रायाख्यातः स गरुडभिया पिंगल इति ॥ द्विजस्यास्य स्नेहादपठदथ शिष्योतिसुमतिः । स्वकान्तां सम्बोध्य स्फुटमकथयत्सोखिलमिदम् ॥
इत्याह सुमतिस्तां विद्यामधीत्य छन्दोग्रन्थं साधारणजनोपयोगार्थमपभ्रंशेन चिकीर्षुस्तस्य विघ्नविघातद्वारा समाप्तिकामः स्वगुरोः पिंगलाचार्यस्योत्कीर्तनरूपं शिष्टाचारपरिप्राप्तं मङ्गलमादौ कुर्वन्नाह ॥१५
इस आधार पर प्रो० याकोबी ने इसका रचयिता 'अपटरथ' के पुत्र 'सुमति' को मान लिया है। डा० घोषाल ने बताया है कि श्रीटोडरमल्ल ने 'स्नेहादपटदथ' को गलती से 'स्नेहादपटरथ' पढ़ लिया है। हमारे द्वारा प्राप्त रविकर टीका के हस्तलेख से भी यही पुष्टि होती है । अथवा ऐसा भी हो सकता है कि हस्तलेख के लिपिकार ने ही गलत लिख दिया हो। वस्तुतः 'सुमतिः' केवल 'शिष्यः' का विशेषण है, तथा उसे संग्राहक या रचयिता का नाम मान लेना अटकलपच्च भर है।
डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी एक स्थान पर 'प्राकृतपैगलम्' को 'लक्ष्मीधर' की रचना मान बैठे हैं। वे कहते हैं :
"लक्ष्मीधर नाम के एक और पंडित ने लगभग चौदहवीं शताब्दी के अंत में 'प्राकृतपैंगलम्' नामक एक ग्रंथ संग्रह किया जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश के छंदों की विवेचना है, और उदाहरण रूप में कई ऐसे कवियों की रचना उद्धत हैं, जिनका पता और किसी मूल से संबद्ध नहीं लगता ।"६
द्विवेदी जी का यह अभिमत किन प्रमाणों पर आधृत है, इसका कोई हवाला इस संबंध में नहीं मिलता ।
वस्तुतः 'प्राकृतपैंगलम्' के संग्राहक के विषय में अभी तक पूरी पूरी जानकारी नहीं हो पाई है। यह अनुमान भर है कि वह ब्राह्मण धर्मानुयायी ब्राह्मण या ब्रह्मभट्ट था तथा मूलत: शौरसेनी अवहट्ट या पुरानी ब्रजभाषा के क्षेत्र से संबद्ध था। संभवतः "पिंगल' उसका काव्यगत उपनाम हो, अथवा अपभ्रंश के छन्दों पर ग्रन्थरचना के कारण लोगों ने उसे 'पिंगल' कहना शुरू कर दिया हो । प्रश्न हो सकता है कि उस व्यक्ति ने अपने वास्तविक नाम को न देकर महर्षि पिंगल या पिंगल नाग के नाम से इस ग्रन्थ को क्यों प्रचारित किया ? जैसा कि हम भूमिका के छन्दःप्रकरण में संकेत करेंगे 'प्राकृतपैंगलम्' के लक्षणभाग प्रायः किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ से लिये गये हैं, जिनमें उक्त संग्राहक ने 'पिंगल', 'नागराज', 'नाग' आदि की छाप देकर उन्हें बदल दिया है, यह चेष्टा अपने ग्रन्थ को प्राचीन एवं परंपरागत आकर ग्रन्थ बनाने की जान पड़ती है । इसीलिये संग्राहक ने अपना नाम नहीं दिया है।
जर्मन विद्वान् प्रो० हर्मन याकोबी ने हरिभद्र के अपभ्रंश चरितकाव्य 'नेमिणाहचरिउ' के एक अंश 'सनत्कुमारचरित' १. प्राकृतगलम् (बिब्लोथिका इंडिका सं०) पृ० १९८ ।। २. Jacobi : Bhavisattakaha : (German cd.) p. 45 Footnote | 3. do Catalogus Catalogorum p. 413, and pt. II p. 160 ४. दे० परिशिष्ट (१) में प्रकाशित 'पिङ्गलसारविकाशिनी' । ५. Dr. S. N. Ghosal द्वारा J. O. I. (Univ. of Baroda). vol. IV, No. 2-3, pp. 188-89 पर उद्धृत । ६. डा० द्विवेदी : 'हिन्दी साहित्य, पृ० ६. (१९५२ ई. संस्करण)
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