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प्राकृतपैंगलम् के उदाहरणों पर कुछ काम किया था, ऐसा संकेत डा० याकोबी की 'भविसत्तकहा' तथा 'सनत्कुमारचरित' की भूमिकाओं में मिलता है।
२. इतना होने पर भी न तो समुचित रूप से अभी तक प्राकृतपैंगलम् के संग्रह-काल तथा संग्राहक के विषय में ही पूरी तरह एक मत बन पाया है, न इसकी भाषा तथा छन्दःपरंपरा के विषय में ही। श्रीमजूमदार जैसे विद्वानों ने इसकी भाषा में प्राचीन बँगला के बीज ढूँढे हैं, तो अन्य विद्वान, जिनमें डा० चाटुा प्रमुख हैं, इसे शौरसेनी अवहट्ट की रचना मानते हैं। डा० याकोबी ने इसकी छन्दःपरंपरा को मागध छन्दःपरंपरा घोषित किया है, तथा इसे वे पूर्वी अपभ्रंश की छन्दःपरंपरा से जोड़ने का संकेत देते जान पड़ते हैं; जो हेमचन्द्र के 'छन्दोनुशासन' में प्राप्त अपभ्रंश छन्दःपरंपरा से सर्वथा भिन्न है । जैसा कि हम आगे चलकर विस्तार से प्रकाश डालेंगे; यद्यपि 'प्राकृतपैंगलम्' की अपभ्रंश वृत्तपरंपरा स्वयम्भूछन्दस् या हेमचंद्र की परंपरा से भिन्न है, तथा दूसरे शब्दों में यह 'भट्ट छन्दः परम्परा' (Bardic tradition of Apabhramsa metres) है, तथापि इस परम्परा का विशेष संबंध पूर्वी प्रदेश से नहीं जान पड़ता । वस्तुतः उस काल में पूर्वी तथा पश्चिमी जैसी विभिन्न स्पष्ट तो छन्दःपरंपरायें नहीं रही होंगी, ठीक वैसे ही, जैसे उस काल की कृत्रिम साहित्यिक भाषा भी गुजरात से लेकर मिथिला तक, १४ वीं शती तक-कतिपय वैभाषिक तत्त्वों को छोड़कर प्रायः-एक-सी ही थी। गुजरात से लेकर मिथिला तक के बंदीजन ११ वीं शती से लेकर १४ वीं तक प्रायः एक सी ही भाषा-शैली का प्रयोग तथा एक-सी ही छन्दःपरंपरा का पालन करते देखे जाते हैं । यह परंपरा पृथ्वीराजरासो, प्राकृतपैंगलम् के पुरानी हिंदी के उदाहरणों तथा विद्यापति की कीर्तिलता में-कतिपय वैभाषिक भेदों, वैयक्तिक अभिरुचियों, लिपिकारों की कृपाओं को छोड़कर-लगभग एक-सी ही मिलती जान पड़ती है । प्राकृतपैंगलम् का संग्रह-काल
३. जैसा कि स्पष्ट है, 'प्राकृतपैंगलम्' एक संग्रहग्रन्थ है। इसके लक्षणभाग तथा उदाहरणभाग दोनों ही अन्यत्र से संगृहीत हैं, जिनमें कुछ अंश संभवतः संग्राहक का भी हो सकता है। इसके लक्षण-भाग की तुलना रत्नशेखर के छंद:कोश से करने पर डा० वेलणकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि 'पिंगल'ने भी रत्नशेखर की भाँति इन्हें किन्हीं पूर्ववर्ती छन्दोग्रन्थों से लिया है, यद्यपि प्राचीन ग्रन्थकारों के नाम के स्थान पर 'पिंगल' ने अपना स्वयं का नाम रख कर लक्षणभाग में परिवर्तन कर दिया है। ये पूर्ववर्ती छन्दोग्रन्थकार संभवतः अर्जुन तथा गोसाल थे, जिनका संकेत रत्नशेखर ने किया है। इस विषय पर हम अनुशीलन के 'छन्दःशास्त्रीय' भाग में विचार करेंगे । जहाँ तक ग्रन्थ के उदाहरण भाग का प्रश्न है, वे भी विविध स्रोतों से उदाहृत हैं । गाथासप्तशती, सेतुबंध तथा कर्पूरमंजरी नामक प्राकृत काव्यों के अतिरिक्त कुछ फुटकर पद्य भी महाराष्ट्री प्राकृत के मिलते हैं, तथा पुरानी हिंदी या अवहट्ठ वाले उदाहरणों में बब्बर, विद्याधर, जज्जल(?) हरिब्रह्म जैसे ज्ञातनामा कवियों की तथा अन्य अनेक अज्ञातनामा कवियों की रचनायें भी संगृहीत जान पड़ती हैं । इन उदाहरणों में एक ओर परिनिष्ठित प्राकृत के पद्य भी मिलते हैं, तो दूसरी ओर परिनिष्ठित अपभ्रंश के भी, तो तीसरी ओर पुरानी हिंदी या शौरसेनी अवहट्ट के भी पद्य हैं-जिनमें यत्रतत्र कुछ वैभाषिक पूर्वी तत्त्व भी मिल जाते हैंतथा यह अंतिम अंश ही 'प्राकृतपैंगलम्' के उदाहरणों में प्रधान है।
४. 'प्राकृतपैंगलम्' के संग्रह-काल के विषय में विद्वानों के दो मत उपलब्ध हैं। प्रथम दल के विद्वान् इसे ईसा की चौदहवीं शती की रचना मानते हैं, अन्य विद्वान् इसे पन्द्रहवीं शती की रचना मानते हैं । 'प्राकृतपैंगलम्' के अन्त:साक्ष्य तथा बहिःसाक्ष्य के आधार किसी निश्चित तिथि का संकेत करने के पूर्व यहाँ विभिन्न विद्वानों के एतत्संबंधी मतों को उद्धृत कर देना उचित होगा ।
१. Jacobi : Bhavisattakaha. p. 45. footnote I. (German cd.) Sanatkumarcharitam (Introduction)
(Eng. tr.) J. O. I.. M. S. Univ. of Baroda, VI. vi pt. 2-3, p. 100) २. Pingala too, borrows like Ratnasekhara, but passes off the older stanzas as his own by substi
tuting his own name for the older ones. Dr. H. D. Velanker : Apabhramsa Metres. II (Journal Univ. of Bombay. Nov. 1936, p. 68)
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