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________________ भूमिका ३६३ (१) आधुनिकास्तु तत्र तत्र 'जम्पे पिंगल' इत्यादिदर्शनात्सूत्राप्युदाहरणसंगृहीतृपिंगलेतरतटस्थकर्तृकाण्येव भवेयुरिति हम्मीरवर्णनात्मकोदाहरणानां सत्त्वादनुमीयते - 'हम्मीरराज्यकालचतुर्दशशतकतो न प्राचीनानि सूत्राणि' इति' इति वदन्ति । १ (म.म. शिवदत्त ) (3) "There is a great interval of time between the appearance of the aphorisms of Pingala (chhandahsutram) and of the present work. The latter could not have appeared before the fourtheenth century of Christian era, at least in the form we see it, whereas the former is generally believed to have its birth at the same time. २ ( श्रीचन्द्रमोहन घोष) (३) "अप० भाषा की अंतिम विकास स्थिति 'प्राकृतपैंगलम्' में पाई जाती है, जो अधिक से अधिक १४ वीं शती की रचना है ।" (याकोबी : भविसत्तकहा पृ० ५ ). "यह बात यहाँ ध्यान देने की है कि पिंगल, छन्दः शास्त्र की मागध परम्परा से संबद्ध था । यह परंपरा उसमें बहुत पूर्व ही विद्यमान थी क्योंकि हेमचन्द्र, पिंगल से कम से कम तीन शती पूर्व के हैं।" (याकोबी: सनत्कुमारचरित की भूमिका) I (४) 'पिंगल के नाम से प्रसिद्ध प्राकृत छन्दों का ग्रन्थ बहुत परवर्ती है । ' ( डॉ० कीथ ) * (५) "छन्द: कोश' का समय १५वीं शती का पूर्वार्ध है। अतः यह पाइयपिंगल' से सौ साल परवर्ती है, जिसमें इसी भाषा में यही विषय पाया जाता है।" (शूनिंग) (६) "इससे यह स्पष्ट है कि वह भाषा, जिसमें पिंगलसूत्र के उदाहरणों की रचना हुई है, हेमचन्द्र की अपभ्रंश से अत्यधिक विकसित भाषा की स्थिति है । अपभ्रंश की इस परवर्ती स्थिति की केवल एक, किंतु अत्यधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता के संकेत तक सीमित रहते हुए, मैं वर्तमानकालिक कर्मवाच्यरूप का उद्धरण दे सकता हूँ, जो अन्त में प्रायःईजे (इज्ज) से युक्त होता है; और यह इस बात का संकेत है कि चौदहवीं शताब्दी के पहले से ही व्यंजनों की द्वित्वप्रवृत्ति के सरलीकरण तथा पूर्ववर्ती स्वर के दौर्घीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी थी, जो अपभ्रंश के साथ तुलना करने पर नव्य भाषाओं की प्रमुख ध्वन्यात्मक विशेषता (प्रतीत होती है, तथा इसी काल में या इसके कुछ बाद में प्राकृतपैंगलम् का अंतिम रूप पल्लवित हुआ होगा ।" (टेसिटोरी) * (७) " (प्राकृतपैंगलम् के) विद्वान् संपादक ने ठीक ही निर्णय किया है कि यह ग्रन्थ १४वीं शती ईसा के उत्तरार्ध के पूर्व इस वर्तमान रूप में नहीं आ पाया होगा, तथा यह १६वीं शती के आरम्भिक दशकों से बाद का नहीं हो सकता।" (श्रीविजयचन्द्र मजूमदार) ७ (८) "प्राकृतपैंगलम् में चौहान राजा हम्मीर से संबद्ध पद्य उदाहृत हैं, जो १३वीं शती के आरम्भ में हुआ था । अतः प्राकृतपैंगलम् १५वीं शती में रखा जा सकता है तथा मार्कण्डेय इससे भी बहुत बाद में, क्योंकि उसके लिए पिंगल पिंगलपाद है" (डा० गुणे)* : (९) "यह ग्रन्थ अपने वर्तमानरूप में १४वीं शती उत्तरार्द्ध की रचना है (डा० चाटुर्ज्या बँगला भाषा का उद्भव और विकास) १. निर्णयसागर संस्करण (भूमिका) । २. Mr. C. M. Ghosa, प्राकृतपैंगलम् ( Intro.) P. VII. ३. Jacobi. Bhavisattakaha (German ed.) p. 5; (Eng. ed.) March 53, p. 241. Sanatkumarcharitam (German ed.) p. XXVI. ४. Dr. Keith : The History of Sans. Literature. p. 416. (Reprint. 1953) यहीं कीथने पादटि० २ में डा० याकोबी की 'भवितसत्तकहा' से उनका मत उद्धृत किया है । ५. ZDMG. 75 (1921) S. 97 ६. L. P. Tessitori: Notes on Old Western Rajasthani. (Indian Antiquary 1914-16) ७. B. C. Majumdar : History of the Bengali Language. p. 249. (Second ed. 1927) ८. Gune: Bhavisattakaha. P. 69 (G.O.S. Baroda, 1923) ९. Chatterjea : ODBL. vol. I. p. 113 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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