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प्राकृतपैंगलम्
[१.८ घूर्णसे' करते हैं । अवहट्ट में अधिकरण में भी शुद्ध प्रातिपदिक रूपों का प्रयोग चल पड़ा है।
घल्लसि-इसके दो रूप पाये जाते हैं-'ददासि' तथा 'घूर्णसे', देशी रूप । तु० गु० घालबो ।
खुल्लणा-यह देशी शब्द है, जिसका अर्थ 'नीच' है। (खुल्लण-शब्दः क्षुद्रवाची) इसकी व्युत्पत्ति 'क्षुद्र' से भी हो सकती है। क्षुद्र>खुल्ल+ण ('आ' विभक्ति अवहट्ठ तथा रा० में भी सम्बोधन ए० व० में पाई जाती है ) इस शब्द का ही विकास रा० खोळ्ळो (नीच, दुष्ट, क्षुद्र) में पाया जाता है, जिसका सम्बोधन में 'खोळ्ळा' रूप बनता है।
कीलसि-क्रीडसि; (आद्य संयुक्ताक्षर में 'रेफ' का लोप, 'ड' का 'ल' में परिवर्तन:-सि, माध्यम पु० ए०व० का वर्तमानकालिक चिह्न, दे० तगारे $ १२६ तथा हेम० ४.३८३) । उल्हसंत < उल्लसत् (उत् + Vलस् के प्राकृत-अपभ्रंश रूप में 'ल्ल' संयुक्ताक्षर में 'असावर्ण्य' के कारण द्वितीय 'ल' के स्थान पर प्राणता (एरिपरेशन) । इस सम्बन्ध में इतना संकेत कर दिया जाय कि निर्णयसागर का 'उह्नसंत' रूप अशुद्ध है जो वास्तविक प्रा०अप० शब्द को संस्कृत बनाने की प्रवृत्ति जान पड़ता है। इसी से वर्णविपर्यय के द्वारा रा० ब्र० 'हुलसबो' विकसित हुआ है। Vउल्हस+अंत+शून्य विभक्ति (कर्ताकारक ए० व०)
जइ दीहो वि अ वण्णो, लहु जीहा पढइ होइ सो वि लहू ।
वण्णो वि तुरिअपढिओ, दात्तिण्णि वि एक जाणेहु ॥८॥गाथा। ८. अन्य अपवाद स्थल एवं विकल्प स्थानों का उल्लेख:
'यदि जीभ किसी दीर्घ वर्ण को भी ह्रस्व (लघु) करके पढे तो वह भी लघु होता है। साथ ही तेजी से पढ़े गये दो तीन वणों को भी एक ही वर्ण गिना जाता है।'
टिप्पणी:-जीहा < जिह्वा (संयुक्ताक्षर के पूर्व के स्वर का दीर्धीभाव तथा 'व' का लोप)। पढइ < पठति ('ठ' का सघोषीभाव (वोइसिंग); वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व०) । तुरिअपढिओ < त्वरितपठितः (तुरिअ < त्वरित-'व' का 'उ' में संप्रसारण, 'त' का लोप; पढिओ=Vपढ+अ (निष्ठा) ।
दात्तिण्णि<द्वौ त्रयः (दे० पिशेल $ ४३६, दो, दुवे, बे; $ ४३८ तिण्णि < त्रीणि, नपुंसक रूप ) । जाणेहु < जानीत (/जाण+हु । अपभ्रंश आज्ञा म० पु० ब० व०, दे० तगारे $ १३८ ए) । जहा,
अरेरे वाहहि कान्ह णाव, छोडि डगमग कुगति ण देहि ।
तइँ इथि णदिहिँ सतार देइ, जो चाहहि सो लेहि ॥९॥ दोहा ९. उक्त अपवाद स्थल का उदाहरण निम्न है :- .
'हे कृष्ण, नौका खेवो; यह नाव छोटी है, इसे डगमग गति न दो । इस नदी में संतार देकर (इस नदी से पार कर) तुम जो चाहो, सो ले लेना ।'
इस पद्य में दोहा छन्द है, जिसमें क्रमशः १३, ११ : १३, ११ मात्रा होती है। इसमें प्रथम चरण में 'अरेरे' में तीन वर्ण हैं, प्रथम लघु तथा द्वितीय दो वर्ण गुरु हैं। इनमें 'रेरे' दोनों को एक साथ त्वरित पढ़ने के कारण एक ही वर्ण माना जायेगा । इस तरह 'अरेरे' की मात्राएँ तीन हैं, ५ नहीं। तभी तो प्रथम चरण में तेरह मात्रा होगी, अन्यथा पन्द्रह मात्रा हो जायेगी। द्वितीय चरण में 'डगमग' में ४ मात्रा न मानकर तेजी से पढने के कारण केवल २ मात्रा मानी जायेगी तथा 'दहि' के 'द' की एक मात्रा होगी। इस तरह गणना करने पर ही द्वितीय चरण में ग्यारह मात्रा हो सकेगी। ८. वण्णो-0. वणो । होइ सो वि लहू-D. सो वि होइ लहू । 'पढिओ-B. पडिओ । दात्तिण्णि-A. दुत्तिणि, B. दोतिण्ण, D. दुत्तिणः । एक्क D. इक्क । जाणेहु-A. B. C. D. जाणेहु, K. जाणेहू । ९. अरेरे-B. रेरे । कान्ह-A. कह्व C. D. कान्ह, K. काह्र । छोडि-K. छोडि; 0. छोटि । दहि-C. देहु । तई-C. K. O. तइ D. तई । इथि णदिहिँ-A. एहि णइ B. C. इत्थि णदिहि, D. इथि णदि, K. इत्थि णइहि N, इथि णदिहिँ, 0. इत्थि गई । देइ-N. दइ । जो चाहहि सो लेहि-A. O. जो चाहसि; D. जो चाहे सो लेहु ।
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