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१.७]
मात्रावृत्तम् केवल छन्दःशास्त्रीय है तथा छंदः सुविधा के लिए यह उच्चारण पाया जाता है। इनका भाषाशास्त्रीय रूप दीर्घ स्वरवाला ही है-एओ, जे, सहजे ।)
पडु-< पतितः (*पट (पत्) > पड्+अ+उ-अप० प्रथमा ए० व०) ।
जइ-यदि । करिए < क्रियते (कर' धातु का वर्तमानकालिक कर्मवाच्य रूप, अथवा इसे 'कर' धातु के विधि (ओप्टेटिव) का रूप भी माना जा सकता है, जिसका 'करि' रूप भी मिलता है । दे० पिशेल ५०९ ।
मणिमंत-टीकाकारों ने इसकी दो तरह से व्युत्पत्ति की है, मणिमन्त्रौ (लक्ष्मीनाथ-निर्णयसागर संस्करण), *मणिमन्त्रैः (मणिमन्त्राभ्यां) (विश्वनाथ-कलकत्ता संस्करण) । इस प्रकार प्रथम रूप मानने पर 'करिए' क्रिया विधि (लिङ्) का रूप होगी, द्वितीय रूप मानने पर वह कर्मवाच्य वर्तमान का रूप होगी, अथवा इसे करण मानकर भी क्रिया को विधि रूप माना जा सकता है, ऐसी स्थिति में अर्थ होगा- 'जब भुजंगम स्वयं नमें, तो व्यक्ति मणिमन्त्रों में क्या करे ?' इनमें दोनों रूप मानने पर 'शून्य' (०) विभक्ति चिह्न है । अपभ्रंश में प्रथमा ब० व० तथा तृतीया ब० व० दोनों में शून्य विभक्ति भी पाई जाती है। किन्तु तृतीया में इसका प्रयोग बहुत कम है, प्रथमा के लिए दे० तगारे 8 ८४; साथ ही दे० 'स्यम्जस्-शसां लुक' हेम० ८.४.३४४ । अपभ्रंशे सि-अम्-जस्-शस् इत्येतेषां लोपो भवति; 'एइ ति घोडा एहि थलि' इत्यादि अत्र स्यम्-जसां लोपः-वही । रहवंजणसंजोअस्स जहा,
चेउ सहज तुहुँ चंचला, सुंदरिहदहिँ वलंत ।
पअ उण घल्लसि खुल्लणा, कीलसि उण उल्हसंत ॥७॥ [दोहा] ७. रेफ तथा हकार से संयुक्त अक्षर के पूर्व के लघुत्व का उदाहरण :
'हे चित्त, तू स्वभाव से ही चंचल है। किन्तु सुन्दरियों के (सौंदर्यरूपी) तालाव में गिर कर तो तू पैर भी नहीं हिलाता (देता); मूर्ख (नीच), तू तो वहीं प्रसन्न होकर क्रीड़ा करता है।
इस पद्य में 'ह' के पूर्व का वर्ण 'रि' लघु ही माना गया है। गुरु मानने पर छन्दोभंग होगा, क्योंकि 'दोहा' के द्वितीय चरण में १२ मात्रा हो जायगी । 'रि' को लघु मानने पर ही ग्यारह मात्रा ठीक बैठती है।
चे-चेतः (चेअ+उ (संबोधन का ए० व० चिह्न, अपभ्रंश रूप) । तुहुँ-त्वं (मध्यमपुरुष वाचक सर्वनाम कर्ता ए० व० प्राकृत-अपभ्रंश रूप दे० पिशेल ६ ४२०; हिं. तू-तू रा०
चंचला-छन्द की सुविधा के लिए अवहट्ठ तथा पुरानी हिंदी में कई स्थानों पर हुस्व स्वर को दीर्घ बना दिया जाता है । यहाँ 'ला' वर्ण में 'अ' (चंचल) दीर्घ बना दिया गया है।
ह्रदहि-प्राकृत-अपभ्रंश में हृद के 'दह' तथा 'हृद' दोनों रूप हैं। 'हिँ" अधिकरण कारक ए० व० का चिह्न हैदे० पिशेल $ ३६६ ए० । 'आहि' मागधी प्राकृत-एवंवड्डकाहिँ गल्लक्कप्पमाणाहिँ कुलाहि (=एवंवड्रके गल्वर्कप्रमाणे कुले, मृच्छकटिक १२६, ९); पवहणाहिँ (=प्रवहणे, मृच्छ० ११९, २३) । अपभ्रंश 'हिँ-देसहिँ (देशे), घरहिं (गृहे) (हेम. ४.३८६, ४२२) पढमहिँ, समपाअहिं, सीसहिँ, अंतहिँ, चित्तहिँ, वंसहिं (प्राकृतपैंगलम्) । वलंत-Vवल+अंत (Vवल+शत) इसमें शून्य विभक्ति चिह्न है, कर्ता कारक ए० व० | पअ<पदं (पअ+० यहाँ 'शून्य' अपभ्रंश कर्मकारक ए० व० का चिह्न है, दे० तगारे : पृ. ११५-११६) इस सम्बन्ध में इतना संकेत कर दिया जाय कि अपभ्रंश में कर्ता-कर्म ए०व० की वास्तविक विभक्ति 'उ' है, किन्तु वहाँ कुछ रूप 'शून्य' विभक्ति चिह्न वाले भी पाये जाते हैं, जो अवहट्ट काल में अधिक बढ़ते गये हैं तथा हिंदी के शुद्ध प्रातिपदिक रूपों के प्रयोग की आरम्भिक स्थिति है। ('पअ' रूप ठेठ अवहट्ट रूप कहा जा सकता है। कुछ टीकाकारों ने 'पअ' को अधिकरण का रूप माना है। पअ+० (पदे) । वे इसकी व्याख्या 'पदे पुनः ७. सहज-C. O. सहजें तुहुँ-A. तुहुं, C. तुहँ, D. तुहिं । ह्रदहि-A. D. हृदहिं, C. हृदय । उल्हसंत-B. उल्लसंत, C. उलसंत, 0. उसंत ।
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