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________________ ४] प्राकृतपैंगलम् [ १.५ प्राकृत सप्तमी एकवचन का विभक्तिचिह्न । दे० पिशेल $ ३६६ ए) । णिव्वुत्तम् < निर्वृत्तम् (रेफ का सावर्ण्य, ऋ का 'उ' में परिवर्तन )। इहिकारा बिंदुजुआ, एओ सुद्धा अ वण्णमिलिआ वि लहू । रहवंजणसंजोए, परे असेसं वि होइ सविहासं ॥५॥ [सिंहिनी) ५. बिंदुयुत (सानुस्वार) इकार तथा हिकार; एवं शुद्ध अथवा व्यञ्जनयुक्त एकार, ओकार, तथा संयुक्त रेफ तथा हकार से पूर्व का वर्ण, ये सभी विकल्प (विभाषा) से गुरु होते हैं अर्थात् कहीं कहीं लघु भी माने जा सकते हैं।' टिप्पणी-इहिकारा बिंदुजुआ । इहिकारौ बिंदुयुतौ । ध्यान दीजिये, प्राकृत तथा अपभ्रंश में द्विवचन नहीं होता है। अतः ये बहुवचन के रूप हैं । प्राकृत अपभ्रंश में पु० ब० व० विभक्ति 'आ' (2 आस्) होती है-*इहिकाराः, *'बिंदुयुताः। वि-2 अपि (पदादि 'अ' का लोप, दे० पिशेल $ १५३; गाइगर 8 ६६; पो वः' प का व में परिवर्तन)। लहू-'लहू' का बहुवचन रूप (उकारांत शब्द के प्रथमा ब० व० में 'ऊ' विभक्ति भी होती है, दे० पिशेल $ ३७८, वाउ' शब्द के प्रथमा बहु व० रूप, वाउणो, वाउ, वाउओ, वाअवो, वाअओ, वाअउ )। वंजण < व्यञ्जन (आद्याक्षर में संयुक्त 'य' का लोप) । सविहासं < सविभाषम् ('खघथधभां हः'(प्रा० प्र.२२७), 'शषोः सः' (वही २-४३) |जहा) माणिणि माणहिँ काइँ फल, ऐओ जे चरण पडु कंत । सहज भुअंगम जइ णमइ, किं करिए मणिमंत ॥६॥ [दोहा] ६. इन अपवाद स्थलों के दो उदाहरण देते हैं : 'हे मानिनि, यदि यह प्रिय पैरों पर गिरा है, तो मान करने से क्या लाभ ? यदि भुजंगम (साँप, कामी व्यक्ति) सहज में ही झुकता (शांत होता) है, तो (हम) मणि तथा मंत्रो से क्या करें ? इस गाथा में 'एआ' 'ज' के एकार, ओकार, एकार ह्रस्व हैं । सहज का एकार भी ह्रस्व हैं । 'करिए' का एकार ह्रस्व नहीं, वह गुरु ही है। टिप्पणी-माणहिँ < मानेन (माण+हिँ, प्राकृत अपभ्रंश में “हिँ' तृतीया एकवचन का भी चिह्न है, दे० तगारे ६ ८१, पृ. १२० । किंतु मूलत: हिँ' (आहिँ-एहिँ) प्राकृत में केवल 'तृतीया' ब० व० का विभक्तिचिह्न था, जो अपभ्रंश में आकर तृतीया एकवचन तथा सप्तमी दोनों का चिह्न हो गया, दे० पिशेल ३६८ । अतः 'माणहिँ' का मूल उद्गम 'मानैः से मानना होगा।) काइँ < किं । (यह 'किं' का अपभ्रंशकालीन विकास है, वस्तुतः इसका विकास 'किं' शब्द के नपुंसक लिंग प्रथमा–द्वि० ब० व० 'कानि' > काई से हुआ है। हेमचन्द्र के अनुसार अपभ्रंश में 'किं' के नपुंसक में 'काँइ' तथा 'कवण' रूप होते हैं-'किमः काई कवणौ वा' (८।४।३६७) साथ ही दे० पिशेल ४२८ ) 'काई' रूप विक्रमोर्वशीय (चतुर्थ अंक) में भी मिलता है। ए आ ज... सहज-(प्राकृत अपभ्रंश में ह्रस्व ए-ओ स्वरों के उच्चरित का पता चलता है, भले ही इनके लिए कोइ लिपि संकेत नहीं पाया जाता । संस्कृत में हुस्व ए-आ का अस्तित्व नहीं था, वैसे पतंजलि ने महाभाष्य में सामगायकों के द्वारा ह्रस्व ए-आ के उच्चारण का संकेत किया है।-दे० पिशेल १६५-६७ तगारे ६ १५, चाटुळ ओ०डी०बी० ६ १३१ । इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने की है कि उक्त विद्वानों ने प्रायः ह्रस्व ए आ वहाँ माना है, जहाँ मूल संस्कृत शब्द दीर्घ ए-ओ के बाद संयुक्ताक्षर था, यह बात ए आ, ज, सहज पर लागू नहीं होती, अत: इनका यह ह्रस्व रूप ५. इहिकारा-B. इहिकारा. C.D. इहिआरा. K.O. इहिआरा । सुद्धा-D. सुधा । संजोए-C. संजोए । असेसं वि होइ सविहासंA. असेसम्मि होइ°, B. असेसंपि होइ, C. असेसंपि सविहासं, O. असेसं वि सविहासं । ६. माणहिँ काइँ-A. माणहिं काई; c. माणहिँ काँइ; D. माणहिं काई; 0. माणहि-काई । सहज-D. सहज । करिए-C. करिजऐ, D. करिजइ; 0. करिअए । मणिमंतC. मणिमन्त, D. मणिमंत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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