SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.४ ] मात्रावृत्तम् [ ३ 'जी', 'व' संयुक्तपूर्व गुरु के उदाहरण हैं। 'संभुं' 'कामंती' 'गहिलत्तणं' बिंदुयुत गुरु के उदाहरण हैं, तथा 'कुणइ' का 'इ' पदान्त ह्रस्व के गुरुत्व का उदाहरण है । टिप्पणी- माई - मात: (मातृ - माइ, माई; ॠ का 'इ' कार 'त' का लोप), रूए-रूपेण अथवा रूपे (इसे या तो तृतीया एकवचन का रूप माना जा सकता है या सप्तमी एकवचन का, 'प' का लोप) हिण्णो-हीन: (हीणो-हिण्णो द्वित्वरूप में पूर्ववर्ती स्वर का ह्रस्वीकरण) । जिण्णो-जीर्ण: (सावर्ण्य, पूर्वनर्ती स्वर का ह्रस्वीकरण) । वुड्डओ-वृद्धकः ('ऋ' का 'उ' उहत्वादिषु प्रा० प्र० १-२९), 'ऋ' के कारण 'द्ध' का प्रतिवेष्टितीकरण 'ड्डू'; व का विकल्प से 'ब' वाला रूप भी मिलता है - वुड्डओ-बुड्डुओ; हि० बूढ़ा, बुड्ढा, रा० बूढो (उच्चारण 'बूडो') कामंती - कामयमाना ( प्राकृत - अपभ्रंश में परस्मैपदआत्मनेपद का भेद नहीं रहा है, अतः यहाँ संस्कृत के शतृ (अत्-अन्त) से विकसित 'अंत' प्रत्यय पाया जाता है, शानच् नहीं, पुल्लिंग, कामंतो) । गोरी-गौरी ('औ' का 'ओ', 'औत ओत् प्रा० प्र० १ - ४१) हि० रा० गोरी (दे० 'गोरी गणगोरी माता खोल कुवाँडी, बायर ऊबी थारी पूजणवारी' - राजस्थानी लोकगीत) | गहिलत्तणं-ग्रहिलत्वं (आद्याक्षर में संयुक्त 'रेफ' का लोप, 'सर्वत्र लवराम् प्रा० प्र० ३ - ३ । दे० पिशेल २६८ । तु० दोह<द्रोह: दह<हृद; तणं त्वं (*त्वन्) दे० पिशेल $ ५९७, तु० निसंसत्तण= नृशंसत्वन्; निउणत्तण= * निपुणत्वन्, बालत्तण (ललितविस्तर ५६१, २ मुद्राराक्षस ४३, ५); घरणित्तण (अनर्घराघव ३१५), भअवदित्तण ( मालतीमाधव ७४, ३ ) : सहाअत्तण ( शाकुंतल ५८, १०) । कुणइ - संस्कृत व्याख्याकार इसका मूल उद्भव 'करोति' से मानते हैं। किंतु इसका मूल रूप 'कृणोति' (पंचम गण का 'कृ' 'धातु') है; जिसका संस्कृत में प्रचार बहुत कम हो गया था, जिसका वेदों में कृणोति - कृणुते, अवेस्ता में 'क्अर्डनओइति' (प्राचीन फारसी 'अकुनवं' <* अकृनवं) रूप पाया जाता है । (दे० बरोः पृ. ३२४) । इसी 'कृणोति' से 'ऋ' का 'उ' में परिवर्तन करने पर 'कुणइ - कुणेइ' रूप बनते हैं । 'कुणइ' का विकास 'करोति' से मानना बहुत बड़ी भाषा-वैज्ञानिक भ्रांति हैं, जिसका बीज हमें वररुचि के प्राकृतप्रकाश में ही मिलता है, जहाँ 'कुण' को 'कृ' के स्थान पर विकल्प से आदेश माना है, वास्तविक विकास नहीं । (कुञः कुणो वा ८-१३) । इस पर भामह की मनोरमा इस प्रकार है - डुकृञ् करणे । अस्य धातोः प्रयोगे कुणो वा ( इत्यादेशः ) भवति । कुइ, करइ । कत्थवि संजुत्तपरो, वण्णो लहु होइ दंसणेण जहा । परिल्हसइ चित्तधिज्जं, तरुणिकडक्खम्मि णिव्वुत्तम् ॥४॥ [ गाथा ] ४. अब गुरु - लघु के अपवादस्थलों का संकेत करते हैं : 'कहीं कहीं संयुक्ताक्षर के पूर्व का वर्ण भी ठीक उसी तरह गुरुत्व से स्खलित (लघु) हो जाता है, जैसे तरुणीकटाक्ष के कारण चित्त का धैर्य स्खलित हो जाता है ।' स्वयं इसी पद्य में परिल्हसइ' में 'रि' संयुक्तपर होने पर भी लघु ही माना जायेगा, अन्यथा छंदोभंग हो जायेगा । 'पिंगलछंदः सूत्र' के अनुसार भी कुछ संयुक्ताक्षरों से पूर्व का वर्ण विकल्प से गुरु माना जाता है- 'हप्रोरन्यतरस्याम्' इस सूत्र से 'ह' तथा 'प्र' के पूर्व का वर्ण विकल्प से गुरु माना जाता है । टिप्पणी - कत्थवि - कुत्रापि (दे० तगारे $ १५३ (बी), (५) । कत्थ, केत्थु, कत्थइ, कित्थु ) । वण्णो-वर्णः (सावर्ण्य) । दंसणेण दर्शनेन (तालव्य 'श' का दन्त्य 'स', न का 'ण' 'नो ण:'; रेफ का लोप, निराश्रय अनुनासिक का आगम, 'एण' तृतीया एकवचन की प्राकृत विभक्ति (सं. <एन) । जहा- यथा, परिल्हसइ - (इसके दो संस्कृत रूप माने गये हैं । परिस्खलति, परिहसति ।' मेरी समझ में द्वितीय रूप अधिक ठीक है ।) धिज्जं < धैर्यं (रेफ का सावर्ण्य, 'य' का 'ज'; 'ऐ' का 'ईद् धैर्ये' (प्रा०प्र० १-३९) इस सूत्र के अनुसार 'ई' कार, पुनर्निर्मित रूप *धीज्जं, संयुक्ताक्षर से पूर्व स्वर का ह्रस्वीकरण 'धिज्जं' अथवा 'ऐ' का सीधे ह्रस्व 'इ' में परिवर्तन भी माना जा सकता है-दे० 'इत्सेंधवे' (प्रा०प्र० १-३८) सिंधवं < सैंधवं ) । तरुणिकडक्खम्मितरुणीकटाक्षे; अपभ्रंश में 'तरुणी' के 'ई' का ह्रस्वीकरण होने से 'तरुणि' रूप बनता है, अथवा समास में भी पूर्व पद की अंतिम दीर्घ स्वरध्वनि का ह्रस्वीकरण होता है. दे० पिशेल $ ९७ कडक्ख कटाक्ष, 'ट' का सघोषीभाव (वोइसिंग), क्ष क्स, पूर्ववर्ती स्वर का ह्रस्वीकरण; म्मि <स्मिन् ४. कडक्खम्मि -C. कडख्खम्म, D. कडष्षम्मि । परिल्हसइ -C. परिहसइ । णिव्वुत्तं -C. णिव्वत्ते, B. णिवृत्तं । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy