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________________ प्राकृतपैंगलम् [१.२ (Vजि का भ्वादिवाला रूप, म० भा० आ० में इसका वै० रू० जिणइ भी मिलता है, जो नवमगण के 'जिनाति' का विकास है।)। दीहो संजुत्तपरो, बिंदुजुओ पाडिओ अ चरणंते । स गुरू वंक दुमत्तो, अण्णो लहु होइ सुद्ध एक्लो ॥२॥ |उद्गाथा| २. सर्वप्रथम अक्षरों के गुरु तथा लघु भेद को स्पष्ट करते हुए उनकी परिभाषा निबद्ध करते हैं : 'दीर्घस्वर (आ, ई, ऊ, ए, ओ), संयुक्ताक्षर से पूर्व अक्षर, बिंदुयुक्त अक्षर (अं, कं, खं......) तथा चरण के अंत में पतित अक्षर 'गरु' होता है, यह वक्र (बाँका) तथा द्विमात्रिक होता है, अन्य अक्षर लघु होते हैं, ये शुद्ध तथा एककल (एकमात्रिक) होते हैं। प्राकृत में 'ऋ-ऋ', 'ल-लू' नहीं होते, अतः ऋ तथा लू के गुरुत्व को मानने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। साथ ही 'ऐ, औ, अः, तथा संयुक्ताक्षर में प्रयुक्त य, व, शुद्ध श, ष एवं ङ, ञ, न नहीं होते । इसका प्रमाण निम्न पद्य है : एओअंमलपुरओ सआरपुढेहिं बेवि वण्णाओ। कच्चतवग्गे अन्ता दह वण्णा पाउये ण हवंति ॥ (ए, ओ, अं, म तथा ल जिनके पूर्वे हैं ऐसी ध्वनियाँ (ऐ, औ, अः, य, व); स जिसके बाद है ऐसे दा वर्ण (श,ष) तथा कचतवर्गों के अन्त्य वर्ण (ङ, , न) ये दस वर्ण प्राकृत में नहीं होते ।) टिप्पणी-दीहो-दीर्घ : (रेफ का लोप, घ का 'ह' 'खघथधभां हः' प्रा० प्र० २-२७); संजुत्तपरो-संयुक्तपर: (य का 'ज', क्त का 'त्त' सावर्ण्य); बिंदुजुओ (युत:'-'य' का 'ज', 'त' का लोप); पाडिओ-पातितः ('पड्' V'पत्'→*पट का णिजन्त निष्ठारूप; पट् णिच्+क्त पड्-णिच्+अ; पातयति→पाडइ, पाडेइ) । चरणंते-चरणान्ते (प्राकृत में प्राय: संयुक्ताक्षर के पूर्व के दीर्घ अक्षरों को तथा सानुस्वार दीर्घ स्वर को ह्रस्व बना दिया जाता है, दे० गाइगर २ तथा भूमिका 'आ' का ह्रस्वीकरण); वंक;-वक्रः ('रेफ' का लोप *वक्को, रेफ के स्थान पर मात्रिक भार को बनाये रखने के लिए प्रथमाक्षर में निराश्रय अनुनासिकीकरण (स्पोन्टेनियस नेजेलाइजेशन); वक-वंक, हि० बाँका, राज० बाँको, दे० ब्लॉखः । ६०) । दुमत्तो- द्विमात्रः (दु-द्वे' राजस्थानी दुइ-दे० टेसिटोरी: $ ८०) । अण्णो -अन्यः ('नो णः', 'य' का सावर्ण्य के कारण 'ण') । लहु-लघुः । होइ→भवति (सं० 'भू-→ "भव→हो)। एक्कअलो→एककल: (इसके दो रूप मिलते हैं, कुछ हस्तलेखों में 'एक्ककलो' रूप है, समासांत पदों में कभी कभी मध्यवर्ती अन्य पदों के पदादि व्यंजन का भी लोप कर दिया जाता है, किंतु प्राकृत में ऐसे भी रूप मिलते हैं जहाँ ऐसा नहीं होता। दे० धवलकओपवीअLधवलकृतोपवीत (कृतधवलोपवीत), पिशेल $ ६०३) । एक में 'क' का द्वित्व (दे० तगारे: $ १०५. इसके तीन रूप मिलते हैं एक्कु, एक, ऍक्क; हि० एक, रा०गुज० नेपा०, एक)। |जहा माई रूए हेओ, हिण्णो जिण्णो अ वुड्डूओ देओ । संभुं कामंती सा, गोरी गहिलत्तणं कुणइ ॥ ३ ॥ गाथा। ३. उपर्युक्त तथ्य को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दे रहे हैं : "हे सखि, देख तो यह वर रूप से कुत्सित, हीन, जीर्ण, तथा बूढ़ा है। शंभु को वरण करने की इच्छावाली पार्वती (सचमुच) व्यर्थ हठ कर रही हैं।' इस पद्य में 'माई' 'रूए' 'हेओ' दीर्घ स्वरों के गुरुत्व के उदाहरण हैं। 'हिण्णो', 'जिण्णो' 'वुडओ' के 'हि', २. पाडिओ अ चरणंते-C. पाडिओ चरणंते । स-D. सो । गुरू- C. D. गुरु । एक्कअलो-A. एकअलो, D. एक्कअलो, N. एककलो । ३. जिण्णो -O. जिणो । वुड्डओ-A. बुढओ; C. वढओ; D. K. बुडओ । देओ-A. D. देवो । गोरी-N. गौरी । गहिलत्तणं-A. महिलगणं । कुणइ-C. कुणई: D. कुणए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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