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प्राकृतपैंगलम्
भाग -
१
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प्राकृतपैंगलम्
(मूल, पाठान्तर, व्याख्या और टिप्पणी )
प्रथम परिच्छेद
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मात्रावृत्तम्
जो विविहमत्तसाअरपारं पत्तो वि विमलमइहेलं । पढमब्भासतरंडो, णाओ सो पिंगलो जअइ ॥ १ ॥ | गाथा |
१. भारतीय ग्रन्थों की परिपाटी को वहन करते हुए प्राकृतपैंगल के संग्राहक ने आरम्भ में छन्दः शास्त्र के आदिम उद्भावक महर्षि पिंगल की वंदना करते हुए मंगलाचरण की अवतारणा की है। ग्रन्थ की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए आदि में मंगलाचरण निबद्ध करना भारतीय कवि या ग्रंथकार अपना परम कर्तव्य समझता है
'जिन महर्षि पिंगल ने अपनी विमल बुद्धि से लीला के साथ विविध मात्राओं के सागर (छन्दः सागर) को पार किया तथा जो भाषा (अवहट्ठ, अपभ्रंश) के प्रथम 'तरण्ड' (नौका) हैं, उनकी जय हो ।'
टीकाकारों ने इसका एक दूसरा अर्थ भी किया है :- 'उन पिंगल मुनि ( शेषावतार) की जय हो, जिन्होंने गरुड (वि) की विमल बुद्धि को अनादर से देखकर ..... ।' इसका तीसरा व्यंग्यार्थ यह भी है :- 'उस पोतवणिक् (पिंगल) की जय हो, जिसने विशिष्ट बुद्धि के कारण अनेक प्रकार के धन के साथ समुद्र को पार किया तथा जिसकी नौकायें धनादि से विभूषित (जाज्वल्यमान) हैं।' इस तरह यहाँ छन्दः शास्त्राचार्य नागराज पिंगल तथा पोतवणिक् का उपमानोपमेय भाव व्यंग्य है ।
टिप्पणी- विविह - विविध; मत्त - मात्रा (परवर्ती संयुक्ताक्षर के पूर्व दीर्घस्वर का ह्रस्वीकरण) (दे० पिशेल, $ १०९, गाइगर $ २); पत्तो - प्राप्तः ('प्र' के रेफ का लोप 'प्त' का 'त' सावर्ण्य; 'प्रा' के दीर्घस्वर का ह्रस्वीकरण); मइमति ('कगचजतदपयवां प्रायो लोपः '- प्रा० प्र० २ -२), पढमब्भासतरण्डो - प्रथम भाषातरण्डः (पढम - प्रथम रेफ के कारण 'थ' का प्रतिवेष्टितीकरण (रिट्रोफ्लेक्शन); आद्याक्षर में संयुक्त रेफ का लोप; समास में 'भासा' के 'भ' का द्वित्व 'ब्भ' तथा 'सा' के स्वर का ह्रस्वीकरण); णाओ- टीकाकारों ने इसके दो रूप माने हैं, 'ज्ञात:'; तथा 'नाग:'; जअइ-जयति मत्तसार - A. मत्तपसाअर D. सायर । पढम - C. D. K. O पढमं भास' । तरंडो -C. तरण्डो । K. सर्वत्र 'व' स्थाने 'ब', यथा 'बिबिह, बि बिमलमई । जअइ- 'जअई ।
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