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१.१०] मात्रावृत्तम्
[७ टिप्पणी-वाहहि, देहि, लेहि-Vवाह+हि. / दे+हि, ले+हि, ये तीनों आज्ञा म०पु०ए० व० के रूप हैं, अपभ्रंश में आज्ञा म०ए०ए०व० का चिह्न 'हि' है। (दे० तगारे ६१२८ ए० । त० करहि, अच्छहि, मिल्लहि, देवहि, होहि, गणिज्जहि, पिज्जहि)।
णाव < नौः (भा०यू० शब्द; सं.नौः, ग्रीक० नाउस्, लैतिन नाविस्, अंग्रेजी नेवी (प्रा० भा० यू० नाव-स्) । डगमग-अनुकरणात्मक (ओनोमेटोपोइक) शब्द, क्रियाविशेषण ।
कुगति-प्राकृत में इसका रूप 'कुअइ' होगा; किन्तु यह शब्द अपभ्रंश काल से भी दो पग आगे की भापा का संकेत करता है, जब देशी भाषा में तत्सम रूपों का प्रयोग बढने लगा था । प्राकृतपैंगलम् के केवल एक ही हस्तलेख (K-B) में 'कुगइ' पाठ मिलता है, जो संभवतः लिपिकार की शब्द को प्राकृत बना देने की प्रवृत्ति का द्योतक है, बाकी सभी हस्तलेख 'कुगति' पाठ मानते हैं। यह कर्मकारक ए० व० का रूप है, जहाँ 'कुगति शून्य' विभक्ति चिह्न है । कहना न होगा, परवर्ती अपभ्रंश, अवहट्ट एवं प्राचीन हिंदी स्त्रीलिंग शब्दों में भी कर्म में शून्य विभक्ति चिह्न का प्रयोग चल पड़ा है।
तई। त्वं (त्वं का एक रूप 'तुहुँ' हम देख चुके हैं। इसके 'तइ-त' रूप भी पाए जाते हैं, साथ ही एक रूप 'पई भी अपभ्रंश में मिलता है।-दे० पिशेल ९४२१. साथ ही हेम. ३।३७० । 'पइ' रूप विक्रमोर्वशीय के अपभ्रंश पद्यों में मिलता है (विक्रम० ५८८; ६५/३)। पिशेल ने इसे अपभ्रंश के कर्म करण अधिकरण ए० व० का रूप माना है (दे० पिशेल ४२०), किंतु यह कर्ता-में भी ए० व० का रूप है। साथ ही दे० तगारे १२० । हेमचंद्र ने भी 'तइ (तई), पई रूप केवल कर्म, करण तथा अधिकरण के ए० व० में ही माने हैं :-टाड्यमा पई तई ८।४।३७० । अपभ्रंशे युष्मदः टा-डि-अम् इत्येतैः सह पई तई इत्यादेशौ भवतः । वस्तुतः पइँ-'तइ' (तइँ) ठीक उसी तरह मूलतः कर्म-करण का रूप रहा होगा जैसे 'मई (मया) । किंतु धीरे धीरे 'मई' भी अवहट्ठ में कर्ता कारक ए० व० में प्रयुक्त होने लगा है और इससे विकसित हि. 'मैं' का भी यही हाल है। वैसे ही 'पई-तई भी अवहट्ठ में कर्ता कारक में प्रयुक्त होने लगा है। यहां इसका प्रयोग कर्बर्थ में ही है तथा यहाँ यह कर्मवाच्य क्रिया का कर्ता न होने के कारण संस्कृत 'त्वं' का समानांतर है, "त्वया' का नहीं, चाहे इसकी व्युत्पत्ति का संबंध करण कारण (तृतीया विभक्ति) से रहा हो । पुरानी अवधी, व्रज आदि का 'तइं (तें)' का विकास इसी क्रम से हुआ है।
संतार-(अपभ्रंश में 'अ' के साथ अनुस्वार विकल्प से अनुनासिक हो जाता है । दे० तगारे $ ३३ )
देइ < दत्वा (दे+इ)। प्राकृत में पूर्वकालिक क्रिया का वाचक 'इअ' प्रत्यय है, यह अपभ्रंश में भी पाया जाता है । अपभ्रंश में पदांत 'अ' का लोप कर देने पर इसका 'देइ' रूप भी मिलता है ।-दे० तगारे ६ १५० । पृ. ३२२) । चाहहि (Vचाह+हि वर्तमान कालिक म०पु०ए०व० । हि० चाहना, रा० चाहबो (उच्चारण छा'बो) ।
जम ण सहइ कणअतुला, तिल तुलिअं अद्धअद्धेण ।
तम ण सहइ सवणतुला, अवछंदं छंदभंगेण ॥१०॥ [गाहू) १०. जैसे सोना तौलने का काटा तिल के आधे या चौथाई अंश को भी अधिक या न्यून होने पर नहीं सह पाता, वैसे ही श्रवण-तुला (कान की तराजू) छंद भंग के कारण भ्रष्ट उच्चारण नहीं सह पाती ।
टिप्पणी-जम तेम < यथा-तथा दे० तगारे $ १५१ (सी) (११), (१८); इसके जेव-तेवं रूप भी होते है । अद्ध-अद्धण-अर्द्धार्द्धन (रेफ का लोप) ।
अबुह बुहाणं मज्झे, कव्वं जो पढइ लक्खणविहूणं ।
भूअग्गलग्गखग्गहिँ, सीसं खुडिअंण जाणेइ ॥११॥ [गाथा। ११. जो मूर्ख व्यक्ति पंडितों के बीच लक्षणहीन (अशुद्ध) काव्य पढ़ता है, वह अपने हाथ में स्थित खड्ग से अपने ही सिर का खण्डित होना नहीं जानता । १०. जम-D. जिम । तेम-D. इम । सवणतुला-C. श्रवणतुला । अवछंदं-A. अवछंद । तेम ण... तुला-0. तेम ण तुला । ११. अबुह-D, अबुहो । बुहाणं-D. बुहाण । मज्झे-A. D. मझ्झे । कव्वं-0. कव्व । लक्खण"-C. लख्खण -D. लष्षणं । "विहूर्ण-A, विहुणं । भूअग्ग-A भूअअग्ग, C. D. भुअग्ग। खग्गहिँ-C. खग्गेहि, D. N. O. खग्गहिं । खुडि-A. D.K. खुलिअं। ण जाणेइ-C. न जाणेइ C. ण जाणेहि; O. ण जोणेई ।
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