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________________ २.१८७] वर्णवृत्तम् [१६३ सद् < शब्दायंते । (पदांत 'ऊ' ध्वनि समस्या है, क्या यह 'सदु' < शब्दिताः (कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप) का छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत रूप है ?) हरंता (=हरंता का छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ रूप) < हरन् ('अस्ति' इति शेषः) । वर्तमानकालिक क्रिया के लिए वर्तमानकालिक कृदंत का प्रयोग । त्रयोविंशत्यक्षरप्रस्तार, सुंदरी छंद :जहि आइहि हत्था करअल तत्था पाअ लहू जुण कण्ण गण्णा, ठवि चामरआ काहलजुअ लंका सल्ल पहिलइ वे वि घणा । पअ अंतहि सक्को गण पभणिज्जे तेइस वण्ण पमाण किआ, इअ मत्तहि पोमावइ पणिज्जे वण्णहि सुंदरिआ भणिआ ॥२०६॥ २०६. जहाँ प्रत्येक चरण में आरंभ में हस्त (सगण), तब करतल (सगण) तब पाद (भगण), तब दो लघु तथा कर्ण (दो गुरु) स्थापित करके क्रमशः चामर (गुरु), काहल युग (दो लघु) तथा बंक (गुरु) हो, तब पहले शल्यद्वय (दो लघु) के बाद पादांत में शकगण (षट्कल का चौथा भेद, ॥5) हो, इस प्रकार तेईस वर्ण प्रमाण किये हों, यह छंद मात्रावृत्त में पद्मावती तथा वर्णिक वृत्त में सुंदरी कहलाता है। टिप्पणी-पभणिज्जे < प्रभण्यते । कर्मवाच्य रूप । मत्तहि < मात्राभिः (स्त्रीलिंग), वण्णहि < वर्णैः दोनों करण ब. व. के रूप हैं । आइहि सगणा बे वि गण तिज्जे सगणा अंत । भगणा सगणा कण्ण गण मज्झे तिण्णि पलंत ॥ २०६ क ॥ [दोहा २०६ क. (सुन्दरी छंद में) आदि में दो सगण हों, अन्त में तीन सगण हों, तथा मध्य में क्रमशः भगण, सगण तथा दो गुरु होते हैं। (सुंदरी, ॥5, 5, ॥s, ||s, 55, ||s, ||s, us = २३ वर्ण, ३२ मात्रा) जहा, जिण वेअ धरिज्जे महिअल लिज्जे पिट्ठिहि दंतहि ठाउ धरा । रिउवच्छ विआरे छल तणु धारे बंधिअ सत्तु सुरज्जहरा ॥ कुल खत्तिअ तप्पे दहमुह कप्पे कंसिअ केसि विणासकरा, करुणा पअले मेछह विअले सो देउ णराअण तुम्ह वरा ॥२०७॥ [सुंदरी] २०७. उदाहरण: जिन्होंने वेद धारण किया, पीठ पर पृथ्वीतल धारण किया, दाँतों पर पृथ्वी स्थापित की, शत्रु के वक्षःस्थल को विदीर्ण किया, छल से (मानव या वामन) शरीर धारण कर शत्रु को बाँधा तथा उसके राज्य का अपहरण किया, क्षत्रियकुल को संतप्त किया, दशमुखों (रावण के दसों मुखों को) काटा, कंस तथा केशी का विनाश किया, (बुद्धावतार में) करुणा प्रकटित की, तथा (कल्कि रूप में) म्लेच्छों को विदलित किया, वे नारायण तुम्हें वर दें। टि०-धरिज्जे, लिज्जे-< ध्रियते, लायते (*नीयते) । टीकाकारों ने इनका अनुवाद 'धृतः (वेदः), गृहीतं (महीतलं) किया है, किंतु ये कृदन्त रूप न होकर कर्मवाच्य २०६. जहि-N. जहिं । पहिलइ-C. पहल्लिअ । घणा-C. गणा । इअ-N. एँहु । मत्तहि-C. मत्तह । पोमावइ-C. पउमावइ । २०६-C. २०९, N. २७१ । २०६. क. एतत्पद्यं-A. C. N. प्रतिषु न प्राप्यते । २०७. सत्तु सुरज्जहरा-N. सत्तुपआल धरा, 0. सुरज्जधरा । तप्पे-N. कंपे, ०. दप्पे । कप्पे-C. कंपे, N. कट्टे । मेछह-N. मेच्छह । णराअण-C. णराइण, N. णराअणु २०७.C. २१०, N. २७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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