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________________ १६२] प्राकृतपैंगलम् [२.१९० २०३. उदाहरण:-कोई विरहिणी वसंत का वर्णन कर रही है : किंशुक फूल गया है, चम्पक प्रकटित हो गये हैं, आम बौर छोड़ रहा है, दक्षिण पवन शीतल होकर चल रहा है, वियोगिनी का हृदय काँप रहा है, केतकी का पराग सब दिशाओं में फैल गया है, सब कुछ पीला दिखाई दे रहा है, हे सखि, वसंत आ गया है, क्या किया जाय, प्रिय तो समीप है ही नहीं । टिप्पणी-तेज्जइ-< त्यजति ।। हीआ-<(=हिआ) < हृदय > हिअअ > हिआ, कर्ता ए० व० । आउ< आयातः, कर्मवाच्य (भाववाच्य) भूतकालिक कृदन्त रूप । काइ<किं (दे०-किमः काइकवणौ वा; हेमचंद्र ८.३४.३६७ । साथ ही राज० काँइ (उ० काँई) । थक्कइ-< स्थगयति अथवा तिष्ठति । पासे-< पार्श्वे (हि० रा० 'पास') । द्वाविंशत्यक्षरप्रस्तार, हंसी छंद :विज्जूमाला आई पाए तिअ दिअगण तह बहु गुणजुत्ता, अंते कण्णा सुद्धा वण्णा भण फणिवइ कइवर गुणजुत्ता । जं बत्तीसा मत्ता थक्के पअ पअ पअलिअ लह गुरु सोहा, एसो हंसी णामा छंदो सअल विबुहअण किअ मण मोहा ॥२०४॥ २०४. जहाँ प्रत्येक चरण में आरंभ में विद्युन्माला (आठ गुरु) हों, फिर बहुगुणयुक्त तीन द्विजगण (अर्थात् तीन बार चार लघु; १२ लघु हों), अंत में शुद्ध वर्ण कर्ण (गुरुद्वय) हो; गुणयुक्त कविवर फणिपति (पिंगल) कहते हैं; जहाँ प्रत्येक चरण में बत्तीस मात्रा हों, जिनमें लघु तथा गुरु फी शोभा प्रकटित हो, यह हंसी नामक छंद है, जि के मन को मोहित कर लिया है। (हंसी :-55555555, || | | ॥, 55 = २२ वर्ण, ३२ मात्रा) । टिप्पणी-थक्के<थक्कइ, वर्तमानकालिक क्रिया प्र० पु० ए० व० । किअ < कृतं । जहा, णत्ताणंदा उग्गे चंदा धवलचमरसम सिअकरविंदा, उग्गे तारा तेआहारा विअसु कुमुअवण परिमलकंदा । भासे कासा सव्वा आसा महर पवण लह लहिअ करता, हत्ता सदू फुल्ला बंधू सरअ समअ सहि हिअअ हरंता ॥२०५॥ [हंसी] २०५. उदाहरण:शरत् ऋतु का वर्णन है : नेत्रों को आनंदित करनेवाला धवल चामर के समान श्वेत किरणों वाला चन्द्रमा उग आया है, तेजोयुक्त तारे उग गये हैं, सुगंध से भरे कुमुद खिल गये हैं; सब दिशाओं में काश सुशोभित हो रहा है, मधुर पवन मंद मंद गति से बह रहा है, हंस शब्द कर रहे हैं, बंधूक पुष्प फूल गये हैं, हे सखि, शरत् ऋतु हृदय को हरता है। टिप्पणी-विअसु < विकसितं (कुमुदवनं का विशेषण) कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप । २०४. आई-N. पाए । कइवर-C. करिवर । गुणजुत्ता-C. गणजुत्ता । थक्के-C. हत्थ । लहुगुरु-N. गुरुलहु । एसो... छन्दोN. एसा... छन्दो। २०४-C. २०७, N. २६७ । २०५. सम-C. कर । विअसु-C. विअस । भासे-N. भासा । आसा-B. सारा । "लहु-N. लह । सरअ-B. सइअ । २०५-C. २०८, N. २६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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