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________________ १५६] प्राकृतपैंगलम् [२.१९० १८९. उदाहरण: इस सुंदरी की आँखों का अंजन धुला हुआ है और इसलिए उसकी आँखें लाल हैं, मुख पर अलकें बिखरी हुई हैं, उसने हाथ से अपने बालों को पकड़ रखा है और बालों से पानी की बूंदें टपक रही है; इसका शरीर केवल एक ही वस्त्र से ढंका है; इससे ऐसा प्रतीत होता है कि योगीश्वर (भैरवानंद) ने स्नान क्रीडा के बाद ही इस अपूर्व सुंदरी को यहाँ उपस्थित कर दिया है। यह भी कर्पूरमंजरी सट्टक के प्रथम जवानिकांतर का २६वाँ पद्य है। भाषा प्राकृत है। चन्द्रमाला छंदःठइवि दिअवरजुअल मज्झ करअल करहि, पुण वि दिअवरजुअल सज्ज बुहअण करहि । सरसगण विमल जह णिट्ठविअ विमल मइ तुरिअ कइ उरअवइ चंदमल कहइ सइ ॥१९०॥ १९०. हे बुधजन, आरंभ में द्विजवर युगल (चतुर्लध्वात्मक गणद्वय, आठ लघु) स्थापित कर, मध्य में करतल (सगण) करो, फिर आठ लघु (द्विजवरयुगल) सजाओ, जहाँ निर्मल सरस गणों की स्थापना की जाय, विमलमति वाले आशुकवि (त्वरितकवि) सर्पराज (उरगपति) पिंगल ने उसे चंद्रमाला छंद कहा है। (चन्द्रमाला:-॥ ॥ || 151 | | | = १९ वर्ण) । टिप्पणी-ठइवि < स्थापयित्वा, णिजंत का पूर्वकालिक क्रिया रूप । करहि < कुरु; / कर+हि, आज्ञा म० पु० ए० व० । चंदमल < चन्द्रमालां; छन्दोनिर्वाहार्थ 'मा' के 'आ' का ह्रस्वीकरण; वास्तविक रूप 'चन्दमाल' होना चाहिए । कहइ < कथयति, वर्तमान प्र० पु० ए० व० । जहा, अमिअकर किरण धरु फुल्लु णव कुसुम वण, कुविअ भइ सर ठवइ काम णिअ धणु धड् । रवइ पिअ समअ णिक कंत तुअ थिर हिअलु, गमिअ दिण पुणु ण मिलु जाहि सहि पिअ णिअलु ॥१९१॥ [चंद्रमाला] १९१. उदाहरण:कोई सखी नायिका को अभिसरणार्थ प्रेरित कर रही है : अमृतकर (चन्द्रमा) किरणों को धारण कर रहा है, वन में नये फूल फूल गए हैं, क्रुद्ध होकर कामदेव बाणों को स्थापित कर रहा है, तथा अपने धनुष को धारण कर रहा है, कोयल कूक रही है, समय भी सुंदर (नीका) है, तेरा प्रिय भी स्थिरहदय है, हे सखि, गए दिन फिर नहीं मिलते, तू प्रिय के समीप जा । टिप्पणी-भइ < भूत्वा । ठवइ < स्थापयति, धरइ < धरति । णिक-देशी शब्द 'णीक', राज० नीको (=अच्छा) । हिअलु < *हृदय-लः ('ल' स्वार्थे) । गमिअ < गतानि (=गमितानि) । . १९०. ठइवि-0. ठइ । मज्झ-A. मझ, C. मझ्झ । करहि-N. करहिँ । बुहअण-N. करअल । जह-N. जहि । णिविअ सुण्णि ठवइ मन गइ। तुरिअ कइ-N. विमल मइ । सइ-N. सोइ । सरसगण.... सइ-C. सरस गण विमलमइ जोह मुणि ववहि । विमलमइ उर अंकइ चंदमाल कहइ सोइ । १९०-C. १९३, N. २४२ । १९१. धरु-C. धरइ, N. धर । फुल्नु णव कुसुम वण-C. फुल्लु णव कमलवणु, N. फुल्लबहुकुसुमवण । धणु धइ-C.N.O. धरइ धणु । समअ-C. समअ अ । कंत-N. किंत । हिअलु-N. हियलु। मिलु जाहि-C. मिल जाहि, N. मिल णाहि । सहि-C. सहिअ । १९१-C. १९४, N. २४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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