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२.१८७]
वर्णवृत्तम्
[१५५
जहा,
जे लंका गिरिमेहलाहि खलिआ संभोअखिण्णोरईफारुप्फुल्लफणावलीकवलणे पत्ता दरिदत्तणं । ते एहिं मलआणिला विरहिणीणीसाससंपक्किणो
जादा झत्ति सिसुत्तणे वि वहला तारुण्णपुण्णा विअ ॥१८७॥ [शार्दूलसाटक १८७. उदाहरण:
मलयाचल के वे पवन जो लंका के पर्वत से स्खलित हो गए थे और जो सम्भोग के कारण थकी हुई सर्पिणियों के अपने बड़े और फैले हुए फणों से साँस लेने के कारण क्षीण हो गए थे, अब शीघ्र ही विरहिणियों के नि:श्वास का सम्पर्क पाकर शैशव काल में ही मानों तारुण्यपूर्ण हो गए हैं। ___ यह कर्पूरमंजरीसट्टक के प्रथम जवनिकांतर का २० वाँ पद्य है । भाषा प्राकृत है ।
टि०-दरिहत्तणं-<दरिद्रत्वं, सिसुत्तणे < शिशुत्वे (दे० पिशेल ५९७) । 'त्तण' की उत्पत्ति पिशेल ने वैदिक प्रत्यय 'त्वन' से मानी है। शार्दूलविक्रीडित का द्वितीय लक्षण:पत्थारे जह तिण्णि चामरवरं दीसंति वणुञ्जलं,
उक्विटुं लहु विणि चामर तहा उट्ठीअ गंधुग्गुरो । तिण्णो दिण्णसुगंध चामर तहा गंधा जुआचामरं
रेहंतो धअपट्ट अंत कहिअं सर्दूलविक्कीडिअं ॥१८८॥ १८८. जिस छन्द के प्रसार में उज्ज्वल वर्ण वाले (अथवा वर्गों के कारण उज्ज्वल) तीन चामर (गुरु) दिखाई देते हों, तथा फिर से उत्कृष्ट लघु तथा चामर (गुरु) हों, तब गंध (लघु) तथा गुरु उठे हों, तब तीन गन्ध (लघु) दिये जार्थं, तब तीन गुरु हों, तथा फिर एक लघु तथा दो गुरु हों, अन्त में ध्वजपट्ट (लघ्वादि त्रिकल I5) सुशोभित हों, तो उसे शार्दूलविक्रीडित कहा जाता है।
टि०-चामरवरं, वण्णुज्जलं, उक्विटुं, चामरं, कहि, सदूलविक्रीडिअं-ये सब प्राकृत रूप है, जो नपुंसक ए० व० में पाये जाते हैं। प्रा० पैं० की भाषा में °अं वाले रूप अपवाद स्वरूप हैं।
रेहंतो-< राजन्, वर्तमानकालिक कृन्दत रूप ।
जहा,
जं धोअंजणलोललोअणजुअं लंबालअग्गं मुहं,
हत्थालंबिअकेसपल्लवचए घोलंति जं बिंदुणो । जं एवं सिसअंचलं णिवसिदं तं ण्हाणकेलिट्ठिदा,
आणीदा इअमब्भुदक्कजगणी जोईसरेणामुणा ॥१८९॥ [शार्दूलविक्रीडित]
१८७. मेहलाहि-C. मेहलासु । खलिआ-A. खलीआ। फारुप्फुल्ल-A. फारप्फुल । एहि-A. इन्हि, C. एह्नि, N. इण्हि । णीसासA. निसास। १८७-C. १८३, N. २३९ । १८८. जह-C. तह । वणुज्जलं-A. वणूज्जलं B. वणुज्जलं । उक्किट्ठ-C. तथ्थेअ, N. तच्चेअं। उट्ठीअ-N. उट्टेअ । गंधुग्गुरो-N. गंधग्गुरे । सुगंध-A. सूगंध । तिण्णो-N. तिण्णे । गंधाजुआ-N. गंधाअवे । रेहंतो-N. रहेन्ता । धअवट्ट-C. धअपट्ट, N. फणिवण्ण। कहिअं-N. करणे । सदुलविक्कीडि-C.O. अंत करणे सदूल सट्टा मुणो N. *सददूलसट्टा मुणे। १८८-C. १८४, N. २४० । १८९. लोल-C.N. "सोण । पल्लव-C. पल्लअ । हत्थालंबिअ-N. हत्यालंबिद'
घोलंति-K. घोणंति। सिअअंचलं-C.N. सिचअंचलं। ण्हाण -C. णाण', N. ह्राण । केलिद्विदा-K.केलिट्ठिआ,C.N. केलिट्ठिदा । इअमब्भुदेकजणणी-K. इअमझ्झदेकजणणी। १८९-C. १८५, N. २४१ ।।
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