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प्राकृतपैंगलम्
[२.१६०
१५९. उदाहरण:
योधा लोग एकदम सुसज्जित हो रहे हैं, उस समय रणवाद्य गर्जन कर रहे हैं, रोष के कारण समस्त शरीर में रक्त हुए योद्धाओं के द्वारा भीषण हाँक दी जा रही है; दौड़कर, आकर, खड्ग पा कर, दैत्य चल रहे हैं; तथा वीरों के पैर के कारण पृथ्वीतल (पाताल) में शेषनाग काँप रहा है ।
टिप्पणी-गज्ज < गर्जन्ति, वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० । वज्ज 2 वाद्यानि (हि० बाजा)।
दिज्ज < दीयते, कर्मवाच्य रूप है, अर्थ होगा 'योद्धाओं के द्वारा हाँक दी जा रही है।' टीकाकारों ने इसे कर्तृवाच्य 'ददाति' से अनूदित किया है, जो गलत है।
धाइ (धाविअ < धावित्वा), आइ (<आइअ), पाइ (<पाइअ प्राप्य), पूर्वकालिक रूप । चलंतउ < चलन्, वर्तमानकालिक कृदंत रूप । निशिपाल छंद :
हारु धरु तिण्णि सरु इण्णि परि तिग्गणा, पंच गुरु दुण्ण लहु अंत कुरु रग्गणा ।
एत्थ सहि चंदमुहि बीस लहु आणआ, कव्ववर सप्प भण छंद णिसिपालआ ॥१६०॥ १६०. प्रत्येक चरण में क्रमशः एक हार (गुरु) तथा तीन शर (लघु) (देकर) इस क्रम से तीन गणों की स्थापना करो; अंत में रगण करो, इस तरह पाँच गुरु तथा इसके दुगुने (दस) लघु (प्रत्येक चरण में) हों; हे चंद्रमुखि, हे सखि, यहाँ बीस मात्रा लाओ (अर्थात् यहाँ प्रत्येक चरण में ५ गुरु+१० लघु २० मात्रा धरो); कविवर (अथवा काव्य की रचना करने में श्रेष्ठ) सर्पराज (पिंगल) कहते हैं कि यह निशिपाल छंद है।
(निशिपाल:-5||5||5||1515=१५ वर्ण) । टिप्पणी-इणि < अनया । एत्थ < अत्र । जहा,
जुज्झ भड भूमि पल उट्ठि पुणु लग्गिआ, सग्गमण खग्ग हण कोइ णहि भग्गिआ । वीर सर तिक्ख कर कण्ण गुण अप्पिआ, इत्थ तह जोह दह चाउ सह कपिआ ॥१६॥
निशिपाल] १६१. उदाहरण:-युद्ध का वर्णन है :
युद्ध में योद्धा पृथ्वी पर गिरते हैं, फिर उठ कर (युद्ध करने में) लग गये हैं, स्वर्ग की इच्छावाले (वीर) खड्ग से (शत्रु को) मार रहे हैं। कोई भी नहीं भगा है, वीरों ने तीक्ष्ण बाणों को धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खींच कर अर्पित कर दिया है, इस तरह बाणों को मार कर दस योद्धा पैरों साथ काट दिये हैं।
(कुछ टीकाकारों ने 'वीर सर' के स्थान पर 'बीस सर' पाठ लिया है, तथा 'इत्थ' के स्थान पर 'पत्थ' (पार्थः) पाठ माना है। इस तरह वे इसे अर्जुन की वीरता का वर्णन मानते हैं और अर्थ करते हैं:-'अर्जुन ने एक साथ धनुष की प्रत्यंचा कान तक चढ़ा कर बीस बाण फेंके तथा दस योद्धाओं को मार गिराया ।')
टिप्पणी-जुज्झ < युद्धे, अधिकरण ए० व० । उट्ठि < उट्ठिअ < उत्थाय, पूर्वकालिक क्रिया रूप ।
लग्गिआ < लग्नाः, भग्गिआ (=भग्गिअ) 2 भग्नः (छंदोनिर्वाहार्थ तुक के लिए पदांत स्वर का दीर्धीकरण), अप्पिआ < अपिताः ।
कप्पिआ < कल्पिताः, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप । १६०. धरु-C. धर । सरु-C. सर । इण्णि -K. हित्थि । कव्ववस्-C. कव्वमण । १६१. जुज्झ-C. K. जुभ्झ । भङ-0. भल । पल-K. पउ । उट्ठि पुणु-C. O. पुण्णु उट्ठि, N. उट्ठि पुण, K. उठ्ठि पुणु । अप्पिआ-C. थक्किआ। इत्थ-K. पत्थ । जोह-C. जोणु । चाउ'-C. ठाँव सव कप्पिआ, N. पाअ सह कप्पिआ ।
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