SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २.११६] वर्णवृत्तम् [१३१ उपेंद्रवज्रा छंद: णरेंद एक्का तअणा सुसज्जा, पओहरा कण्ण गणा मुणिज्जा । उविंदवज्जा फणिराअदिट्ठा, पढंति छेआ सुहवण्णसिट्ठा ॥११६॥ ११६. उपेंद्रवज्राः जहाँ आरम्भ में एक नरेंद्र (जगण) सुसज्जित हो, फिर पयोधर (जगण) हो तथा अंत में कर्ण गण (दो गुरु) जानना चाहिए । यह फणिराज पिंगल के द्वारा दृष्ट शुभवर्णों से युक्त उपेन्द्रवज्रा छंद है, इसे विदग्ध व्यक्ति पढ़ते हैं । उपेंद्रवज्रा:-1515515I55 = ११ वर्ण । टि०-मुणिज्जा-टिकाकारों ने इसे (१) ज्ञायते-ज्ञायंते, (२) ज्ञातः के द्वारा अनुदित किया है। इस प्रकार यह कर्मवाच्य रूप प्रतीत होता है, किंतु इसे क्रिया रूप मानने पर 'मुणिज्जई' अथवा 'मुणिज्जे' रूप होना चाहिए । संभवतः 'सुसज्जा' की तुक पर 'मुणिज्जे' को 'मुणिज्जा' बना दिया है। या 'मुणिज्ज' जो वस्तुतः कर्मवाच्य का 'स्टेम' है, छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ कर दिया है। अथवा इसे संस्कृत 'अनीयर' > म० भा० आ० इज्ज का रूप भी माना जा सकता है। इसका सं० रूप 'मननीया' (ज्ञेया) मानना होगा । दिट्ठा-(=दृष्टा) सिट्ठा (=सृष्टा); छेआ < छेकाः । जहा, सुधम्मचित्ता गुणमंत पुत्ता, सुकम्मरत्ता विणआ कलत्ता । विसुद्धदेहा धणमंत णेहा कुणंति के बब्बर सग्ग हा ॥११७॥ [उपेंद्रवज्रा] ११७. उदाहरण: धर्मचित्त गुणवान् पुत्र, सुकर्मरत विनयशील पत्नी; विशुद्ध देहधनयुक्त घर हो, तो बब्बर कहते हैं, स्वर्ग की इच्छा कौन करेंगे? टि०-कलत्ता, देहा, गेहा, णेहा आदि शब्दों में छन्दोनिर्वाहार्थ पदान्त अ का दीर्घ रूप पाया जाता है । उपजाति छंद: इंद उविंदा एक्क करिज्जसु, चउअग्गल दह णाम मुणिज्जसु । समजाइहि समअक्खर दिज्जसु, पिंगल भण उवजाइहि किज्जसु ॥११८॥ [अडिल्ला] ११८. इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा को एक करना चाहिए, इसके चार अधिक दस (अर्थात् चौदह) नाम (भेद) समझो; समान जाति वाले वृत्तों के साथ समान अक्षर दो, पिंगल कहते हैं-इस प्रकार उपजाति (छंद की रचना) करनी चाहिए। टि०-उविंदा-1 उपेंद्रा > उवेंदा > उविंदा । करिज्जसु, मुणिज्जसु, दिज्जसु, किज्जसु-ये चारों विविध प्रकार के म० पु० ए० व० के रूप हैं। चउ अक्खरके पत्थर किज्जसु, इंद उविंदा गुरु लहु बुज्झसु । मज्झहिँ चउदह हो उवजाइ, पिंगल जंपइ कित्ति वोलाइ ॥११९॥ [अडिल्ला+पज्झटिका] ११९. चार अक्षरों का प्रस्तार करो, इन्द्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा के गुरु लघु समझो (अर्थात् इन्द्रवज्रा में आद्यक्षर गुरु होता है, उपेन्द्रवज्रा में लघु), मध्य में चौदह उपजाति होती है-ऐसा कीर्ति से वेल्लित पिंगल कहते हैं। टि-अक्खरके-'के' परसर्ग (सम्बन्ध कारक का परसर्ग) है। ११६. णरेंद-A. B. णरिंद । फणिराअ--C. फणिराउ । सुहवण्णसिट्टा-C. सुकइंददिट्ठा, 0. °सट्ठा । ११७. कलत्ता-C. करत्ता, K. कलंता । ११८. एतत्पद्यं-C. प्रतौ न प्राप्यते । उवजाइहि-A. उपजाइ कहि । ११९. उविंदा-B. उपेंदा । गुरु लहु बुज्झसुC. लहु गुरु दिज्जसु, A. "बुज्जसु । उवजाइ-0. उअजाइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy