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________________ १२६] प्राकृतपैंगलम् [२.१०० टिप्पणी-मअगल-< मदगल, (पु० हि० मैगल 'हाथी')। दिट्ठिअ-< दृष्टा, स्त्रीलिंग कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग । एकादशाक्षर प्रस्तार, 'बंधु छंदः णील सरुअह एह करीजे, तिण्णी भआगण जत्थ भणीजे । सोलह मत्तह पाअ ठवीजे, दुग्गुरु अंतहि बंधु कहीजे ॥१००॥ १००. जिसके प्रत्येक चरण में तीन भगण कहे जायँ, तथा अन्त में दो गुरु स्थापित किये जायें और सोलह मात्रा हों, उसे बंधु (नामक छन्द) कहा जाता है। इसे नीलसरोरुह भी कहा जाता है (अथवा ऐसा नीले बालों वाले पिंगल ने कहा है)। टिप्पणी-करीजे-(क्रियते), कहीजे (कथ्यते), ठवीजे (स्थाप्यते), भणीजे (भण्यते), ये सब कर्मवाच्य रूप हैं। जत्थ-< यत्र । मत्तह-< मात्राः, (१) 'ह' अप० में मूलतः' संबंध कारक की सुप् विभक्ति है, जिसका प्रयोग धीरे धीरे अन्य विभक्तियों में भी होने लगा है। (२) कर्ताकारक ब० व० में इसका प्रयोग संदेशरासक में भी मिलता है :-'अबुहत्तणि अबुहह णहु पवेसि' (२१), (अबुधत्वेन, अबुधाः न खलु प्रवेशिनः) दे० संदेशरासक (भूमिका) ६ ५१ । (३) इसका प्रयोग प्राचीन मैथिली में देखा गया है, जहाँ इसके 'अह-आह' रूप विशेषण तथा कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत के ब० व० में पाये जाते हैं। 'कइसवाह बेतालह (=कीदृशाः वेताला:)', 'अनेक ऋषिकुमार देखुअह' (वर्णरत्नाकर) । डॉ. चाटुा ने इसकी व्युत्पत्ति प्रा० भा० आ० "स्य' से मानी है, जो मूलतः अप० में सम्बन्ध कारक ए० व० का रूप था । धीरे धीरे यह संबंध ब० व० में तथा अन्यत्र भी प्रयुक्त होने लगा । (दे० वर्णरत्नाकर (भूमिका) २६) । जहा, पंडववंसहि जम्म धरीजे, संपअ अज्जिअ धम्मक दिज्जे । सोउ जुहिट्ठिर संकट पावा, देवक लिमखअ केण मिटावा ॥१०१॥ [बंधु] १०१. उदाहरण: जिसने पांडववंश में जन्म धारण किया, संपत्ति का अर्जन करके उसे धर्म को दिया; उसी युधिष्ठिर ने संकट प्राप्त किया; दैव के लेख को कौन मिटा सकता है ? टिप्पणी-पंडववंसहि-< पांडववंशे, अधिकरण ए० व० । धरीजे-(ध्रियते), दिज्जे (दीयते) कर्मवाच्य रूप । अज्जिअ-< अर्जयित्वा, पूर्वकालिक क्रिया रूप (अज्ज+इअ) । धम्मक < धर्माय, 'क' सम्प्रदान-संबंध का परसर्ग, दे० भूमिका । पावा-< प्राप्तः कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप 'पाआ' का व-श्रुतियुक्तरूप (पाव् आ) । देवक लिक्खिअ-< दैवस्य लिखितं, 'क' संबंध का परसर्ग दे० भूमिका ।। केण-केन, मिटावा, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त का 'व-श्रुति वाला रूप । (मिटाव् आ) (हि० मिटाया, पू० रा० मटायो) । सुमुखी छंदः दिअवर हार लहू जुअला, वलअ परिट्ठिअ हत्थअला । पअ कल चोदह जंप अही, कइवर जाणइ सो सुमुही ॥१०२॥ १००. णील-C. लील । सरुअह-C. सरोरुह । करीजे-B. कहीजे । जत्थ-N. तत्थ । भणीजे-C. धरीजे, B. करीजे K. कहीजे । पाअ-C. पाउ । कहीजे-A.O. करीजे C. मुणिजे, K. भणीजे । १०१. पंडव-0. पंडउ । जम्म-B. जन्म । धरीजेA. B. धरिज्जे, C. करीजें, 0. करीजे । धम्मक दिज्जे-A. धम्मके दिज्जे, C. धम्म धरीजे, O. धम्म करीजे । सो-C. सोइ । जुहिट्ठिर-C. जुधिट्ठिर K. जुहुठ्ठिर । देवक-C. दइअ, A. B. दैवक । लिक्खिअ-A. B. N. लेक्खिअ, C. लेक्खल । मिटावाO. मेटाआ । १०१-१०० । १०२. परिट्ठिअ-C. पविठ्ठिअ । चोदह-A. B. चौदह, C. चउदह, K. चउद्दह, N. चोदह । जंप 0. जंपु । कइवस्-0. कइअणवा । जाणइ-A. जाणह, B. जाणहि, K. बल्लहि, लहिहो । सो-K. C. हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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