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________________ वर्णवृत्तम् सोला कलआ छक्का वलआ, एसा सुसमा दिट्ठा सुसमा ॥ ९६ ॥ ९६. जहाँ प्रत्येक चरण में पहले कर्ण ( द्विगुरुगण), दूसरे हस्त (गुर्वंत सगण), तीसरे कर्ण ( द्विगुरु गण), तथा चौथे हस्त (गुर्वत सगण) हो तथा सोलह मात्रा हों, (जिनमें ) छः वलय (गुरु) (तथा चार लघु हों), यह प्राणों के समान प्यारा (असुसमा) सुसमा छंद है । २.९७ ] ( सुसमा : - SSSSSS ) | टिप्पणी-पढमो < प्रथमः, तिअलो < तृतीयः, चउथो < चतुर्थः । जहा, भोहा कविला उच्चा णिअला, मज्झे पिअला णेत्ता जुअला । रुक्खा वअणा दंता विरला, केसे जिविआ ताका पिअला ॥९७॥ [सुषमा ] ९७. उदाहरण: जिसकी भौंहे कपिल (भूरी) हों, ललाट ऊँचा हो, दोनों नेत्र बीच में पीले हों, वदन रूखा हो, तथा दाँत विरल हों, उसका प्रिय कैसे जी सकता है ? टिप्पणी- इस पद्य के कई शब्दों में छंदोनिर्वाहार्थ पदांत में दीर्घीकरण की प्रवृत्ति पाई जाती है :- भोहा, उच्चा, णिअला, पिअला, जुअला, रुक्खा, वअणा, पिअला । पिअला < पीत+ल (स्वार्थे) > *पिअलो> पिअल (पिअला), (रा० पीलो, व्रज० पीरो) । पिअलाप्रिय+ल (स्वार्थे) > *पिअलो > पिअल (पिअला) । (हि० प्यारा, राज० प्यारो ) । केसे -< कथं । जिविआ - जीवति, यहाँ भी 'अ' छन्दोनिर्वाहार्थ प्रयुक्त हुआ है, इसकी पहली स्वर ध्वनि (ई) का ह्रस्वीकरण भी छन्द के लिए ही हुआ है अमृतगति छंदः— I दिअवर हार पिअलिआ, पुण वि तह ट्ठिअ करिआ । वसु लहु बे गुरुसहिआ, अमिअगई धुअ कहिआ ॥ ९८ ॥ ९८, जहाँ प्रत्येक चरण में, पहले द्विजवर (चतुर्लघ्वात्मक गण) तथा बाद में हार (गुरु) प्रकट हों तथा पुनः वैसे ही स्थापित किये जायँ, आठ लघु तथा दो गुरु से युक्त वह छंद अमृतगति कहा जाता है । (अमृतगति - III 5 III ) टिप्पणी -करिआ - < कृता:, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत ब० व० । कहिआ—< कथिता, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत (स्त्रीलिंग) । जहा, [ १२५ सरअसुधा अरवअणा विअअसरोरुहणअणा । मअगलकुंजरगमणी पिअसहि दिट्ठिअ तरुणी ॥ ९९ ॥ [ अमृतगति ] Jain Education International ९९. उदाहरण: हे प्रियसखि, (मैंने) शरत् के चन्द्रमा के समान मुखवाली, विकसित कमल के समान वदन वाली, मदमत्त कुंजर के समान गति वाली तरुणी को देखा । ९७. भोहा - O. भउहा। कविला - C. कपिला। णिअला - A. लिलरा, B. णिदला, C. K. हिअला । मज्झे - K. मझ्झा । णेत्ताC. अणा । विरला - C. विअला । केसे - A. B. कैसे, O. कइसे । जिविआ -C. जिविला, - ताका - O. ताको। ९८. वसुB. वहु । अमिअगई - N. अमिअगइ । ९९. सरअ - B. सरस । 'सुधाअरवअणा - C. सुहावणण अणा - O सुहाअर' । विअअ' - A. विकच, C. चवलसरोरुहवअणा, K. विकअ, O विमल मअ- C. गअ मअ° गमणा, O मअगअ । पिअसहि -C. जिविअ समासअ रमणा । दिट्ठिअ - A. B. दिट्ठा, O दिउ । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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