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________________ २.७८ ] कंठिआ - कंठिका, (तु० हि० राज० कंठी) । छाला - व्याघ्रचर्म, 'छल्ल' शब्द देशी है, इसीसे 'छाल' का विकास हुआ है (हि० छाल) । 'छाल' के पदांत 'अ' को छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घ बना दिया गया है। पाउ ८ पातु, अनुज्ञा म० पु० ए० व० । सारंगिका छंद : वर्णवृत्तम् किआ < कृतः (कृतं) > किअ, 'अ' छंदोनिर्वाहार्थ दीर्घ बन गया है । वासणा < वसनं, कुछ टीकाकारों ने 'किआवासणा' को समस्त पद (कृतवसना) माना है, जो गलत है । अन्य टीकाकारों ने 'व्याघ्रचर्म कृतं वसनं' व्याख्या की है। यह व्याख्या ठीक जान पड़ती है। 'वासणा' में छन्द के लिए एक साथ दो दो स्थानों पर 'अ' का 'आ' के रूप में दीर्घीकरण पाया जाता है । दिअवर कण्णो सअणं, पअ पअ मत्तागणणं । सुर मुणि मत्ता लहिअं सहि सरगिक्का कहिअं ॥७८॥ ७८. हे सखि, जहाँ प्रत्येक चरण में एक द्विजवर (चतुर्लघ्वात्मकगण), फिर एक कर्ण ( द्विगुर्वात्मक गण ), फिर अंत में सगण (अंतगुरु वर्णिक गण) हो, इस ढंग से जहाँ प्रत्येक चरण में मात्रा की गणना हो, तथा शर (पाँच) और मुनि (सात) अर्थात् १२ (५+७) मात्रा हों, उसे सारंगिका छंद कहा जाता है । (सारंगिका - IIII, ss, us ) टिप्पणी- अणं, 'गणणं, लहिअं, कहिअं वस्तुतः नपुंसक के रूप नहीं हैं। यह अनुस्वार केवल छन्दोनिर्वाहार्थ तथा संस्कृत की गमक लाने के लिए प्रयुक्त किया गया है । [११९ सरगिक्का - 'एक' प्रति में इसका 'सरंगिक्का' पाठ मिलता है। किंतु यह पाठ छन्दोनिर्वाह की दृष्टि से ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें एक मात्रा बढ जाती है। संभवतः यही कारण है, 'सरंगिक्का' का विकास 'सरंगिक्का' हुआ है । प्रा० पै० के हस्तलेखों में प्रायः अनुनासिक का संकेत लुप्त कर दिया जाता है। अतः इसका 'सरगिक्का' रूप मिलता है। वैसे एक प्रति (A. प्रति) ने 'सारंगी' पाठ रख कर इस अडचन को मिटाने की चेष्टा की है। हमने बहुसम्मत पाठ 'सरगिक्का' ही लिया है, जिसे 'सरँगिक्का' का रूप समझते हैं। जहा, हरिणसरिस्सा णअणा कमलसरिस्सा वअणा । जुअजणचित्ताहरिणी पिअसहि दिट्ठा तरुणी ॥ ७९ ॥ [ सारंगिका ] ७९. उदाहरण: हे प्रियसखि, (मैंने) हरिण के समान नेत्रवाली, कमल के समान मुखवाली, युवकों के चित्त का अपहरण करनेवाली उस तरुणी को देखा । टिप्पणी- सरिस्सा सदृश सरिस सरिस्सा (द्वित्व तथा दीर्घीकरण की प्रवृत्ति) (राज' सरीसो - सदृशः) । चित्ताहरिणी - चित्तहरिणी - इसमें 'आ' (चित्ता) छंदोनिर्वाहार्थ प्रयुक्त हुआ है | पाइत्ता छंद : Jain Education International कुंती पुत्ता जुअ लहिअं तीए विप्पो धुअ कहिअं । अंते हारो जह जणिअं तं पाइत्ता फणिभणिअं ॥८०॥ ७८. पअ पअ - N. पअ पण कमलविलासा । हरिणी - A. C. तं पाइत्ता ... भणिअं -C. O ८०. जहाँ प्रत्येक चरण में आरंभ में दो कुन्तीपुत्र अर्थात् कर्ण (गुरुद्वयात्मक गण ) हों, इसके बाद विप्र (चतुर्लघ्वात्मक गण ) तथा अंत में हार (गुरु) हो, उसे पिंगल के द्वारा भणित पाइत्ता छंद (समझो ) । ( पाइत्ता : - ऽऽऽऽ, 1111, 5 ) । सरगिक्का - A. O. सरंगिक्का, C. सारंगी । ७९ सरिस्सा - A. सहस्स । कमलसरिस्सा-C. हरणी । दिट्ठा - C. K. दिठ्ठा । ८० तीए - B. C. तीओ। धुअ- A. B. धुव । जह-B. जहि । पाइता रूअउ कहिअं, N. पाइत्तारू फणिभणिअम् । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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