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प्राकृतपैंगलम्
५३. उदाहरण:
जिस व्यक्ति के गुण शुद्ध हों, पत्नी रूप से सुन्दर हो, घर में धन जगता हो (विद्यमान हो), उसके लिए पृथ्वी भी स्वर्ग है ।
टिप्पणी-घरे < गृहे । डॉ० चाटुर्ज्या के मत से यह 'ए' विभक्ति चिह्न संस्कृत 'ए' का अपरिवर्तित रूप न होकर प्रा० भा० आ० *धि का क्रमिक विकास है । इस तरह इसे हम म० भा० आ० 'अहि' - 'अहिँ' का ही सरलीकृत रूप कह सकते हैं। उनके मत से यह विकास यों हुआ है :
भारोपीय *धो-धि प्रा० भा० आर्य० * गृह-धि 7 म० भा० आ० *गरह-धि, *घरधि घरहि 7 *घरइ > घरै (gharai) 7 *घरे । (तु० बंगाली घरे) । (दे० उक्तिव्यक्तिप्रकरण (भूमिका) § ४० ) ।
तासु - < तस्य 7 तस्स > तास 7 तासुः समानीकृत संयुक्ताक्षर के पूर्व से स्वर को दीर्घ बनाकर उसका सरलीकरण, जो आ० भा० आ० भाषा की खास विशेषताओं में एक है 1
सग्गा - स्वर्गः; पदादि संयुक्ताक्षर व्यंजन के 'स' का लोप, रेफ का 'ग' के रूप में सावर्ण्य, म० भा० आ० रूप होगा 'सग्गो' । उस क्रम से आ० भा० आ० या प्रा० ० का अवहट्ट रूप होना चाहिए- 'सग्ग' । 'सग्गा' रूप इसी का छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घीकृत रूप है। (इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि हिंदी, राज० का 'सरग' शब्द तद्भव
न होकर अर्धतत्सम है, तद्भव शब्द 'सग्ग' का हिंदी रा० में कोई प्रचार नहीं है ।)
मालती छंद:
धअं सर बीअ मणीगुण तीअ ।
दई लहु अंत स मालइ कंत ॥५४॥
५४. (पहले) ध्वज अर्थात् आदि लघुत्रिकल गण (IS), (फिर) दो शर अर्थात् दो लघु, फिर एक मणिगुण (अर्थात् गुरु) तथा फिर अंत में एक लघु देना चाहिए, हे प्रिये, वह मालती छंद है । ( 15 ।। 5 ।)
टिप्पणी-धअं - < ध्वजः, 'अं' छंदोनिर्वाहार्थ प्रयुक्त अनुनासिक है। (ध्यान दीजिये यह नपुंसक रूप नहीं है ।) दई - इसकी व्याख्या तीन प्रकार से की गई है - (१) देयः (२) दीयते, (३) दत्त्वा ।
जहा,
[ २.५४
करा परंत बहू गुणवंत ।
पफुल्लिअ कुंद उगो सहि चंद ॥ ५५ ॥ [ मालइ =मालती]
५५. उदाहरण:
हे सखि, चन्द्रमा उदित हो गया है, नाना प्रकार के गुणों से युक्त (उसकी किरणें फैल रही हैं, (और) कुंद पुष्प फूल उठे हैं ।
टिप्पणी- पसरत - प्रसरन्तः, वर्तमानकालिक कृदन्त प्रत्यय का वर्तमानकालिक क्रिया में प्रयोग (प्रसरन्तः सन्ति' इति शेषः); टीकाकारों ने इसे 'प्रसृताः' माना है, जो गलत है ।
गुणवन्त - गुण+वंत (संस्कृत तद्धित प्रत्यय 'वतुप्' का विकास) । पफुल्लिअ - कर्मवाच्य (भाववाच्य) भूतकालिक कृदन्त का भूतकालिक क्रिया के अर्थ में प्रयोग |
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उगो - उद्गतः > उग्गओ उग्गो उगो कर्मवाच्य (भाववाच्य) भूतकालिक कृदन्त रूप । (हि० उगा, राज० उग्यो, प्रयोग - 'चंदरमा उग्यो क नै' (चन्द्रमा उगा या नहीं ) ? )
दमनक छंद:
दिअवर किअ भणहि सुपिअ ।
दमणअ गुणि फणिवइ भणि ॥ ५६ ॥
५४. मणीगुण तीअ - A. मणी गुण बंत, O. मणि° । दई -C. रई । ५४-०. ५३ । ५५. उगो - C. O. उगू । ५५–O. ५३ । ५६. दिअवर-B. दिजवर । सुपिअ - A. सूपि । गुणि- O. गुण ।
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