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________________ २.५७] वर्णवृत्तम् [११३ ५६. द्विजवर (चतुर्लघुक गण, ।।।।) करके फिर प्रिय (लघुद्वयात्मक गण) कहो, इसे दमनक (छंद) समझो, ऐसा फणिपति पिंगल कहते हैं । (।।। ।।।-दमनक छंद में इस प्रकार दो नगण होते हैं ।) टि०-किअ-< कृत्वा; पूर्वकालिक कृदंत प्रत्यय । भणहि-< भण; अनुज्ञा म० पु० ए० व० 'हि' तिङ् विभक्ति । गुणि-< गणय; अनुज्ञा म० पु० ए० व० 'इ' तिङ् विभक्ति । जहा, कमलणअणि अमिअवअणि । तरुणि धरणि मिलइ सुपुणि ॥५७॥ [दमणक = दमनक] ५७. उदाहरण:-कमल के समान नेत्रोंवाली (सुंदर), अमृत के समान मधुर वचन वाली तरुणी पत्नी सुपुण्य से ही मिलती है। टि०-तरुणि, घरणि-अप० में प्राय: प्रा० भा० आ० के स्त्रीलिंग दीर्घ ईकारांत का ह्रस्वीकरण कर दिया जाता है। (दे० भायाणी: सन्देशरासक ५६ ।) मिलइ-2-मिलति; वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० । सुपुणि-< सुपुण्येन; 'इ' करण कारक ए० व० का चिह्न । सप्ताक्षर प्रस्तरा, समानिका छंद : चारि हार किज्जही तिणि गंध दिज्जही । सत्त अक्खरा ठिआ सा समाणिआ पिआ ॥५८॥ ५८. (आरंभ में एक गुरु फिर एक लघु के क्रम से) चार गुरु (हार) तथा तीन लघु (गंध) दिये जायें। (जहाँ) सात अक्षर स्थित हों, वह समानिका नाम प्रिय छंद है। (ऽ । ऽ । ऽ । 5) टिप्पणी-किज्जही, दिज्जही (क्रियते, दीयते) । पिशेल ने इसी पद्य के 'दिज्जही' का वास्तविक रूप 'दिज्जहिँ' माना है, तथा इसे कर्मवाच्य प्र० पु० ब० व० का रूप माना है। (दे० पिशेल $ ५४५ पृ. ३७४) । इस प्रकार इनका वास्तविक रूप 'किज्जहिँ-किज्जहि', 'दिज्जहिँ-दिज्जहि' होगा । इसीको छंदोनिर्वाह के लिए 'इ' को दीर्घ बनाकर 'किज्जहीदिज्जही' रूप बने हैं । इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि अवहट्ठ में पदांत अनुनासिक प्राय: लुप्त होता देखा जाता है। ठिआ<स्थिताः (अक्षराणि स्थितानि), कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत ब० व० रूप । जहा, कुंजरा चलंतआ पव्वआ पलंतआ । कुम्मपिट्टि कंपए धूलि सूर झंपए ॥५९॥ [समाणिआ समानिका] ५९. उदाहरण:-किसी राजा का एक टीकाकार के अनुसार कर्ण (संभवतः कलचुरिनरेश कर्ण) के सेनाप्रयाण का वर्णन है : हाथी चलते हैं, (तो) पर्वत गिरने लगते हैं, कूर्म की पीठ काँपने लगी है, धूल ने सूर्य को बैंक लिया है। .. टि०-चलंतआ, पलंतआ-वर्तमानकालिक कृदंत 'अंत' के ब० व० रूप । (चलन्तः, पतन्तः) । कंपए, झंपए-(कम्पितं, *झंपितः (आच्छादितः) । कर्मवाच्य (भाववाच्य) भूतकालिक कृदंत । 'ए', सुप् विभक्ति के लिए दे० भूमिका । ५७. कमल-N. कमलणयणि । अमिअ-C. अभिअव भणि । घरणि-0. घरिणी । सुपुणि-A. सूपुणि, C. जु पुणि, ज पुणि । ५८. किज्जही-A. किज्जहि, B. किज्जिही । दिज्जही-A. दिज्जहि । पिआ-O. पिया । ५९. पव्वआ-N. पव्वला । पिट्टि C. पिठ्ठी । झंपए-0. झंपिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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