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________________ २.१७] वर्णवृत्तम् [१०३ टिo-हसंती, हरंती-वर्तमानकालिक कृदंत रूप, स्त्रीलिंग (तु० हि० रा० हँसती) । रमण छंदः सगणो रमणो । सहिओ कहिओ ॥१७॥ १७. हे सखियो, सगण वाला त्र्यक्षर छंद रमण कहा जाता है। (15) टिप्पणी-कुछ टीकाकार 'सहिओ' की व्याख्या 'सख्यः' करते हैं, दूसरे 'सहितः' (सगण से युक्त छंद रमण कहा गया है।) जहा, ससिणा रअणी । पइणा तरुणी ॥१८॥ [रमण] १८. उदाहरण:चन्द्र से जैसे रात्रि (सुशोभित होती है) वैसे ही पति से तरुणी (सुशोभित होती है)। टिप्पणी-ससिणा, पइणा-ये दोनों प्राकृतीकृत रूप हैं। प्राकृत में पु० इकारांत, उकारांत शब्दों में करण ए. व. में ‘णा' विभक्ति पाई जाती है, जिसका विकास संस्कृत 'ना' (इन्नंत पुंलिंग शब्दों की करण ए० व० विभक्ति; हस्तिन्हस्तिना, दण्डिन्-दण्डिना) से हुआ है । संस्कृत में ही हम देखते हैं कि यद्यपि इ-उ शब्दों में करण ए० व० की वास्तविक विभक्ति 'आ' (पाणिनि की संज्ञा 'टा') है, तथापि वहाँ 'इन्नंत' शब्दों के मिथ्यासादृश्य पर यह 'ना' [(इ) न् + आ] इकारांत-उकारांत (अजन्त) रूपों में ही प्रयुक्त होने लगा है, और इस तरह वहाँ हरिणा, कविना, गुरुणा, वायुना जैसे रूप बनने लगे हैं, यद्यपि वास्तविक रूप *हर्या, *कव्या, *गुर्वा, *वाय्वा होने चाहिए थे। यही 'ना' प्राकृत में भी इ-उकारांत शब्द के करण ए० व० चिह्न 'णा' के रूप में विकसित हो गया है। 'णा' के लिए दे० पिशेल ६ ३७९ । संस्कृत में 'शशी' (शशिन्) का तो 'शशिना' रूप बनता है, किन्तु 'पती' से 'पत्या' रूप बनता है, *पतिना नहीं । प्राकृत में 'पई' ((पति) शब्द के रूप भी अन्य इकारान्त शब्दों की तरह चल पड़ते हैं। पिशेल ने इसके मागधी रूप 'पइणा' (=पत्या) का संकेत किया है। समास में इसके 'वई' 'पदि' रूप मिलते हैं :-गहवइणा (महा०), गाहावइणा (अर्धमा०) गृहपतिना, बहिणीपदिणा (मागधी) (मृच्छकटिक ११३-१९) - भगिनीपतिना । पंचाल छंदः तक्कार जं दिट्ठ। पंचाल उक्विटु ॥१९॥ १९. जहाँ तकार (तगण, अंत्यलघु) दिखाई दे, वह उत्कृष्ट छंद पंचाल है । (551) टिप्पणी-दिट्ठ < दृष्टः; उक्किट्ठ < उत्कृष्टः । जहा, सो देउ सुक्खाई। संघारि दुक्खाइँ ॥२०॥ [पांचाल] २०. उदाहरण:वह (भगवान्) दु:खों का नाश कर सुख दें। टिप्पणी-सुक्खाइँ < सुखानि, द्वित्व की प्रवृत्ति दुःख > दुक्ख के मिथ्यासादृश्य पर है। दुक्खाई < दुःखानि; ये दोनों नपुं० कर्मकारक ब० व० रूप है। संघारि < संहत्य > संहारिअ > संहारि > संघारि; पूर्वकालिक रूप । १९. तक्कार-C. तक्काल । उक्किट्ठ-A. जद्दिट्ठ, K. उक्किठ्ठ । २०. संघारि-C. O. संहारि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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