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________________ १०२] जहा, प्राकृतपैगलम् संकरो संकरो । पाउ णो पाउ णो ॥ १४ ॥ [ प्रिया ] १४. उदाहरण: कल्याण के करनेवाले शंकर हमारी रक्षा करे, हमारी रक्षा करे । टि० - संकरो - कर्ता ए० व० 'प्राकृतीकृत' रूप । पाउ- < पातु; आज्ञा प्र० पु० ए० व० । णो- < नः, उत्तम पुरुष वाचक सर्वनाम का कर्मकारक ब० व० प्राकृत रूप (दे० पिशेल $ ४१९) । यह रूप महा० शौर० का है, 'णो' (शाकुंतल २६, १२) । मा० अर्धमा० में इसका 'णे' रूप पाया जाता है (आयारंगसुत्त १, ६, १५: सूयगडंगसुत १७४, १७६, २२९)। इसके अन्य वैकल्पिक रूप प्राकृत में 'अम्हे', 'अम्ह' [ अम्हो ] हैं तथा अप० में अम्हे, अम्हइँ रूप पाये जाते हैं । अप० में 'णो' - 'णे' रूप नहीं मिलते (दे० तगारे $ ११९ अ, पृ. २०१) । शशी छंद: Jain Education International ससी यो जणीयो । फणिदो भणीओ ॥१५॥ १५. जहाँ य अर्थात् यगण उत्पादित (जनित) हो, उसे फणीन्द्र ने शशी छंद कहा है । (155) टि०-जणीयो - ८ जनितः जणिओ 'णि' का दीर्घीकरण छंदोनिर्वाह के लिए पाया जाता है। यहाँ 'य' श्रुति ( ग्लाइड) पाई जाती है। इस संबंध में यह जान लेना होगा कि प्रायः प्रा० ० के हस्तलेख य श्रुति का कोई संकेत लिपि में नहीं करते । कलकत्ता तथा काव्यमाला संस्करण के संपादकों ने भी इसी पद्धति का आश्रय लिया है। किन्तु यहाँ काव्यमाला ने 'य' श्रुति स्पष्टतः लिपीकृत की गई है। एक संस्कृत टीकाकार ने 'जणीओ' प्रतीक ही दिया है। (दे० कलकत्ता संस्करण पृ. ३४९) । मजे की बात तो यह है कि काव्यमाला में 'जणीयो' में तो 'व' श्रुति दी गई है, पर 'भणीओ' में नहीं (दे० काव्यमाला संस्करण पृ. १०६) । मैंने य- श्रुति के एकाकी निदर्शन (सोलिटरी इन्स्टन्स) होने के कारण काव्यमाला का अनुकरण करना इसलिए ठीक समझा है कि अप० अव० काल की य श्रुति वाली प्रवृत्ति का संकेत किया जा सके, जो एक महत्त्वपूर्ण भाषावैज्ञानिक तथ्य है। लिपि में 'य' श्रुति का प्रयोग न करना प्राकृत का प्रभाव है, साथ ही संभवतः इनके 'य' श्रुति युक्त तथा 'य' श्रुतिहीन दोनों तरह के वैकल्पिक रूप रहे होंगे। अपभ्रंश तथा अवहट्ट की कृतियों में इसीलिए य-व श्रुति के लिपीकरण के बारे में एकता नहीं पायी जाती। वैसे जैन हस्तलेखों में 'य' श्रुति का बहुधा संकेत पाया जाता है, किन्तु कभी कभी ये लेख भी य श्रुति का संकेत नहीं करते। इस तथ्य की ओर अल्सदोर्फ तथा याकोबी ने भी ध्यान दिलाया है। प्रो० भायाणी ने भी संदेशारासक की हस्तलिखित प्रतियों में इस भिन्नता का संकेत किया है। (दे० संदेशरासक: भूमिका $ १) । फणिदो भणीओ-८ फर्णीद्रेण भणितं 'फणिदो' का प्रयोग निःसंदेह समस्या है। करण (कर्मवाच्य कर्ता) कारक में 'फणिदे' रूप हो सकता है। क्या 'फणिदो' 'भणीओ' के 'ओ' कारांत की तुक का प्रभाव है ? क्योंकि इसे कर्ता ए० व० 'फणीन्द्र:' मानने पर वाक्यरचनात्मक (सिटेक्टिकल) अव्यवस्था माननी होगी- 'शशी फर्णीद्रः भणितः ' जहाँ (कर्मवाच्य ) कर्ता तथा (कर्मवाच्य) कर्म दोनों का एक ही विभक्ति में होना वाक्यरचनात्मक समस्या पैदा कर सकता है। भवाणी हसंती । दुरितं हरंती ॥ १६ ॥ [ शशी] १६. उदाहरण: हँसती हुई, पापों का अपहरण करती, भवानी (मेरी रक्षा करे ) । १५. यो- A. B. N. O. णो, C. सो, K. ओ जणीयो-0. अणीओ भणीओ- A. भणिओ । 1 [ २.१४ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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