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द्वितीयः परिच्छेदः वर्णवृत्तम्
अह वण्णवित्ताणि
१. द्वितीय परिच्छेद में वर्णिक छन्दः प्रस्तार का विवेचन पाया जाता है। सर्वप्रथम एकाक्षर छंद का लक्षण निबद्ध
करते हैं ।
जहाँ प्रत्येक चरण में एक गुरु हो, वह 'श्री' छंद है । (5)
टिप्पणी- 'सो' प्रा० पैं० में स्त्रीलिंग के लिए भी विकल्प से प्रयुक्त होता है । उक्तिव्यक्तिप्रकरण की भाषा में यह विशेषता देखी जाती है कि 'सो' पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक लिंग तीनों के लिए पाया जाता है । (दे० उक्तिव्यक्तिप्रकरण ( भूमिका $ ६६ (२)) ।
जं < यत्
जहा
सी (श्री) सो । जं गो ॥१॥
गोरी । रक्खो ॥२॥
(श्री)
२. उदाहरण :- भगवती पार्वती, तुम्हारी रक्षा करे ।
टिप्पणी- रक्खी, आज्ञा० प्र० पु० ए० व० में ( रक्षतु > रक्खड > रक्खो)
द्वयक्षर छंद; काम छंद
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दीहा बीहा । कामो रामो ॥३॥
३. (जहाँ) दो दीर्घ (हों), (वह) सुंदर छंद काम 1 (ss)
टिप्पणी- बीहा, इसकी रचना 'दीहा' की तुक पर हुई है। इसका मूल रूप 'बि' (द्वौ ) है । कामो, रामो - प्राकृतीकृत (प्राकृताइज्ड) रूप हैं ।
जहा,
जुज्झे तुझे ।
सुधं देऊ ॥४॥ [ काम]
४. उदाहरण :-(भगवान्) तुम्हें युद्ध में कल्याण (शुभ) प्रदान करें ।
टिप्पणी- जुज्झे < युद्धे, अधिकरण ए० व० ।
तुझे तुभ्यं । इसका मूल रूप 'तुज्झ' है जिसे 'जुज्झे' की तुक पर तुज्झे' बना दिया है। (दे० पिशेल १४२१ ।
<
'तुज्झे इम रेइम मित जुज्झे' = युधि (पिंगल २, ५), ग्रामतीक देर प्राकृत स्प्राखेन पृ. २९७) ।
सुब्भं
<
शुभं, द्वित्व की प्रवृत्ति |
देऊ < ददातु, आज्ञा प्र० पु० ए० व० (√दे+उ) यहाँ पदांत 'उ' को छन्दोनिर्वाह के लिए दीर्घ कर दिया गया है। मूल रूप 'देउ' होगा ।
१. सो - B. C. N. सा । २. गोरी - B. गौरी । ३. इतः पूर्वं N. संस्करणे 'खे भे । द्वे स्तः' इति पद्यं प्राप्यते । दीहा - O वीहा । ४. जुज्झे - B. K. जुझे, C. तुज्झे । तुज्झे - K. तुज्झे C. मुझे । सुब्धं - A. शुम्भं, C. K. सुम्भं, O. सूहं ।
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